संस्कृत लोककथा में लोक-जीवन | Sanskrit Lokkatha Mein Lok-Jeevan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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2/ “सस्कृत लोक्क्था मे लोक जीवन 1. लोक की अवधारणा “लोक” शब्दे वी व्युयत्ति लोक पु लोक्यतेऽसौ लोक्‌ + घञ्‌ । 1 भुवे भुवनशदै दृश्यम्‌ । 2 उने च अमर । भावे घ्‌ 3 दर्शन, तीन अर्थो में हेड टे !1 हलायुधकौश मे “लोक” शब्द का अर्थ ससार, मप्तलोक एवं जन के साथ प्रजा भी क्या गया हैं 2 शब्दकोशों म “लोक” शब्द के क्तिने ही अर्थ मिलते हैं जिनमें से साधारणत दो अर्थ विशेष प्रचलित हैं । एक तो बह जिससे #हलोक, परलोक अथवा ब्रिलोक का ज्ञान होता है। लोक का दूसरा अर्थ है--जन साम्पन्य । इसी का हिन्दी रूप “लोग” प्रचलित है ।? विश्व साहित्य मेँ प्राचीनतम ग्रन्थ वरदो मेँ लोक” शब्द सपार, स्थान, आलोक एव स्वगान्तरिक्षादि? विभिन्‍न लोकों के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कीथ एवं मैकडोबल ये अनुसार, “लाक ऋग्वेद और बाद में ससार का द्योतक है ।अक्सर तीन लोकों का उल्लेख हुआ है और अय लोक ' (यह लोक) वा नित्य ही 'असौ लोक ` (दूरस्य अर्थात्‌ दिव्यलोव) के साथ विभेद किया गया है। कभौ-कभी स्वय लोक शब्द भी च्ुलोक का द्योत॒क है, जबकि कुछ अन्य स्थलों पर अनेक प्रकार के लोकों का उल्लेख हुआ है । 8 उपनिषदों के अनुसार “इहलोक और परलाक” ये ही दो लोक हें । भू, भुव स्व, মহ जन तप, और सत्यम्‌--ये हो सब सप्त व्याहतियाँ कहलाती हैं। पौराणिक वाल में ये ही सात लोकों के आधार हुए और फिर सात पाताल मिलकर कुल चौदट लाकं बने ।10 बृहदारण्यकोपनिपद्‌ एवं हरिवशपुराण में “लोक” शब्द विभिन्न लोक के साथ 1 वाचस्पत्यम्‌ (बृहत्सस्कृताभिधानम्‌) चष्टे भाग् पृ 4833 2 हलायुधकोश (अभिधानएलमाल) पृ 581 3 हिन्दी साहित्यवोश प्रथम भागु पृ 747 लोक के भुवन विश्व स्वर्ग पाताल, समाज, प्रजा, जनता-समूह मानव जाति, यश, दिशा ब्रह्म, विष्णु, परेश, पापी आदि अर्थं कयि जाते हैं। 4 कऋग्वेद-10 85 24 928 88621 10 1331 61201 अधर्ववेद--5.30 17 888 2107 4114 61191 61223 7884 8915 11137 5 कऋवेद-7 33.5 ¬? 609 7832 10164 10 85 20 वहौ 10 10410, 9 92.5 अथर्षवेद-3 286 7 ऋषेद-7 994 91137 1090 14 10 180 3 अधर्ववेद-9124 1117 3294 4.342 438.5 19545 19912 12316 8 वैदिक इण्डेक्स, भाग दो पृ 259 अतत वितत, सतत्‌. रसान तलातल मातन ओर्‌ पातात ये सान पाताल ई । 10 परौएणिकदोश, पृ 443




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