भारतीय दिगम्बर जैन अभिलेख और तीर्थ परिचय | Bhartiya Digamber Jain Abhilekh Aur Tirth Parichay (2001) Ac 6932

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रतिमालेख में द्वष्टव्य है (ले.सं. १६०) । इस प्रकार भट्टारक के देव पदान्ते नान वः ही ई, कीर्तिं पदान्ते नाम मी परवर्तीकाल मे रखे गये ! वदमार्वरं के संवत्‌ १३०५ के एक प्रतिमालेख में कल्याणकीर्चि का नाम मिलता है (ले.सं. २६४)। इन्हें लाटवागटससघ से संबंधि , तत होना बताया गया है। कीर्ततिपदान्स नामों में एक नाम भट्टारक नरेन्‍्द्रकीर्ति छतरपुर के संवत्‌ १३१० के प्रतिमालेख (ले.सं. २३७) में उल्लिखित है। चंद नामान्त नामों में छतरपुर से प्राप्त संवत्‌ १९२७२ (ले.सं, २४६ से २५१) के लेख में मट्टारक प्रभाचंद का नाम उल्लेखनीय हैं। इन उल्लेखों के आलोक में कहा जा सकता है कि संबत्‌ १२५३ के निकट भट्टारकप्रथा विद्यमान रही है। और तेरहवीं शताब्दी तक उसका अस्तित्व बना रहा ज्ञात होता है। मानस्तम्म : अहार क्षेत्र में स्थित मानस्तम्भों से (ले.सं. १-१२) ज्ञात होता है कि संवत्‌ १०११ के निकटवर्ती समय में उत्तर भारत में मन्दिरों में मानस्तम्भों की स्थापना की जाने लगी थी। सामाजिक भावना मन्दिरों और प्रतिमाओं के निर्माण में समाज की बड़ी श्रेष्ठ भावनाएँ रही हैं। समाज ने भोगोपभोर्गो की कामनाँ नही की । समाज नै कर्मो को शुभ माना। ज्ञानावरणदि कर्मो को दुख का कारण जाना ओर माना कि कर्मौ का क्षय हुए बिना सुख संभव नहीं । उदयगिरि लेख में (लि.सं. ४) जिन प्रतिमा का निर्माण पुण्य का तथा पुण्य कर्म-वैरिर्यो के क्षय का कारण स्वीकार किया गया है-क्षयाय कर्मारिगणस्य धीमान्‌ यदत्रपुण्यं तदपाससर्ज्ज 1 जिन प्रतिमा के निर्माण से आढठो कर्मो पर विजय दर्शाई गयी है- अष्टक्र्मारि जयनाय कारापितेयं प्रतिमा (लि.सं. ८४) | जिन प्रतिमाओं का निर्माण यद्यपि पुण्य कं लिए भी किया जाता रहा है-“पुण्याय कारितेयं प्रतिमा (ले.सं. ११२) परन्तु मूल उदेश्य पुण्यार्जन न रहकर कर्मक्षय ही रहा है लेसं. १५८)। प्रतिमा ओर मन्दिरों के निर्माण एवं नमन में श्रेयस की भावना ही निहित रही है। श्रेयस का अर्थ है कल्याण । कल्याणं भी वह जो संसार से छुटकारा दिला दे! लेस. ८७ मे अरिष्टनेमि को प्रणाम किये जाने मे यही भावना अभिव्यक्त होती है। लेसं. ६३ में भी यही भावना समझ में आती है । अहार के संवत्‌ १२१० के लेख से भी (लि सं. १२७) इन्हीं भावनाओं का उद्घोष होता है। इस प्रकार ये अमिलेख मन्दिर. प्रतिमाओं के निर्माण तथा उनकी सदा वन्दना का एकं मात्र यही उद्देश्य दशति है कि संसार मे जीव को दुखदायी हैं उसके स्वयं के कर्म | ये कर्म आठ हैं। इनका क्षय जिनेन्द्र वन्दना बिना संभव नही । अतः यदि पुण्यार्जन भी किया है तो कर्मक्षय के लिए वह भी त्याग दे | मूल उद्देश्य शाश्वत्‌ मोक्ष--सुख की प्राप्ति का ही एक मात्र लक्ष्य रहे तो ही प्रतिमानिर्माण और वन्दना सार्थक है। अभिलेख-संकलन पी.एच.डी उपाधि हेतु “मध्यप्रदेश के जैन अभिलेखों का सांस्कृतिक और समालोचनात्मक अध्ययन' विषय पर शोध प्रबन्ध लिख गया था। इस प्रसंग में जो अभिलेख प्रकाशित हुये थे उन्हें पत्राचार द्वारा एकत्रित किया गया था। पश्चात्‌ उनका अध्ययन करते समय अनुभव में आया कि जो लेख प्रकाशित हुए है, उनके मूलपाठ पंक्तिबद्ध नहीं




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