शुक्ल जैन महाभारत | Shukl Jain Mahabharat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[जिन महामारत द्‌ दूसरी.वार अपने म्रियमाण प्रियतम कीओर। जैसे कि कह रही हो कि क्या झाप इसी न्यायपद्धति एवं बलवृते पर हम निरीह वन वासी प्रजा की पालना करते हैं। क्या हमने किसी को मारा था अ्रथवा हम किसी का धन चुराते हैं ? जिसके उपलदब््य में भरापके साथियों मे इतनी निर्देयता एवं कठोरता से मेरे पति का वध किया है ? मैंढ हीषेत खाने लगे तो उसकी रक्षा ढसे हो सकती है यह तो रक्षक के ही भक्षक बन जाने जसौ वात हुई ! केवल घास तृण खाकर हो जीवन यापन कर देने वाले मेरे पति को मार कर राजन्‌ आप के साथियों को क्या লিলা? भूपति, हिरणी के दुःख तप्त हृदय से निःमृत झार्तनाद को हृदय कर्णों से श्रवण कर रहे थे । उसी की जाति के एक सदस्य के द्वारा उपम्थित किये इस पेैशाचिक कांड ने नर नाथ का हृदय विदोर्ण कर दिया था। हिसारुपी रंग में रंगे मानव रूपी दानद की दानवता से राजा का शरीर सिहर उठा था । उसे ऐसा भनुभव हो रहा था कि मानों रूमस्त चराचर जगत को भपनी सुखद गोद में भरण- पोपण एव विश्राम प्रदान करने वासौ प्रहेति देवौ मनुप्य का उपदास उड़ाती हुई शिक्षा दे रही हो कि--ऐ मानव ! तू सृप्टो का सर्वश्रेष्ठ प्राणो हो कर भी मानवता के भ्रभाव में पशुओं से भी निम्नतर है। तू उनके उपकार मे, उनके श्रम से उत्पन्न अन्न, वस्त्र, फल, फूल, दूष, दपि, घो, मवपन प्रादि प्रमृत का सेवन करके হয রী जीवित रहना चाहता है । पर प्रपने जघन्य स्वार्यवश उन जीवित दाताप्तो को जीवित नही रहने देना चाहता ! यह तेरी कंसी कृत- घ्नता है । यदि मानवाकूति प्राप्त की है तो मानवता वा यह झ. दि सूत्र भी सदा सवंदा स्मरण रख कि-- --ददावकालिक सूत्र ४, ९ संसार भर के प्राणियों फो झपनी प्रात्मा के समान समभो, यहो प्रहिसा को व्यास्या है पौर यही घहिसा वा भाष्य, महानाप्य तथा कसौटी है । (पहिसा जो कि मनुप्यत्व कवा प्रमूम श्रद्ध) जिस दिन जिस घड़ो से लू प्पने जीने का प्रघिवार ले वर ভা है दही जोने का स्धिकार महज भाव से दूसरों के लिए भी देगा, तो मेरे घन्दर दूसरों के जीवन को परवाह करने गो मानवता




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