भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ प्रथम भाग | Bharatke Digamber Jain Tirth Pratham Bhag

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Bharatke Digamber Jain Tirth Pratham Bhag by बलभद्र जैन - Balbadra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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১০০০] १५ स्थापनाका आशय भी गहौ है । द्सलिप्‌ इतिहासातती स करते वैन मूर्तियाँ पामी जाती हैं. और जैन मूर्तियोंके निर्माण और उनकी पूजाके उल्लेखसे तो सम्पूर्ण जैन साहित्य भरा पड़ा है । जैन धर्ममें मूर्तियोंके दो प्रकार बतछाये गये हैं--कृत्रिम और अकृत्रिम। कृत्रिम प्रतिमाओंसे अकृत्रिम प्रतिमाओंकी संख्या असंख्य गृणी बतायी है। जिस प्रकार प्रतिमाएँ कृत्रिम और अकृतिम बतछायी हैं, उसी प्रकार चैत्यालय भी दो प्रकारके हीते हैं--कत्रिम और अकृत्िम । ये चैत्याखय नन्दीदषर द्वीप, सुमेद, कुलाचल, वैतात्य पर्वत, शाल्मछी वृक्ष, जम्बू वृक्ष, वक्षार गिरि, चैत्य वृक्ष, रतिकर गिरि, रुचकगिरि, कुष्डलगिरि, मानुषोत्तर पर्वत, इृष्वाकारंगिरि, अंजनगिरि, द्षिमुख पर्बत, व्यन्तरलोक, स्वर्गलोक, ज्योतिलोंक और भवनवासियोके पाताललोकमे पाये जाते हैं। इनकी कुल संख्या ८५६९७४८१ बतलायी गयी है। इन अकृत्रिम चैत्यालयोंमें अक्ृत्रिम प्रतिमाएँ बिराजमान हैं। सौधमेंस्द्रने युगके आदियमें अयोध्यामें पाँच मन्दिर बनाये और उनमें अक्ृत्रिम प्रतिमाएँ विराजमान की । कृत्रिम प्रतिमाओका जहाँ तक सम्बन्ध है, सर्वप्रथम भरत क्षेत्रके प्रभभ चक्रवर्ती भरतने अयोध्या और कैलासमें मन्दिर बनवाकर उनमें स्वर्ण और रत्नोंकी मूलियाँ विराजमान करायी । इनके अतिरिफ्त जहाँ पर बाहुबली स्वामीने एक वर्ष तक अचल प्रतिमायोग घारण किया था, उस स्थानपर उन्हीके आकारकी अर्यात्‌ पाच सौ पचीस धनुषकी प्रतिमा निमित करायी । ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि दूसरे तीर्थंकर अजितनाथके कालम सगर चक्रवर्तीकि पुत्रोने तथा तीसवे तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथके तीर्थम मुनिराज वाली भौर प्रतिनारायण रावणने कैलास पर्वत पर इन बहत्तर जिनालयोके तथा रामजन्द्र मौर सीताने बाहुबली स्वामीकी उक्त प्रतिमाके दर्शन और पूजा की थी । पुरातात्त्विक दृष्टिसे जैन मृति-कलाका इतिहाप्त सिन्धु सम्यता तक पहुँचता हैं। सिन्धु भाटीकी खुदाईमे मोहन-जो-दडों और हड॒प्पासे जो मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, उनमें मस्तकहीन नग्न मूर्ति तथा सील पर अकित ऋषभ जिनकी मूर्ति जैन धर्मसे सम्बन्ध रखती हैं। अनेक पुरातत्त्ववेत्ताओंने यह स्वीकार कर लिया है कि कायोत्सर्गातनमे आसीन योगी-प्रतिमा आद्य जैन तीथकर ऋषभदेवकी प्रतिमा है । भारतमे उपलब्ध जैन मूर्तियोमे सम्भवत सबसे प्राचीन जैन मूर्ति तेरापुरके रयणोमें स्थित पार्श्यलाथ- की प्रतिमाएँ है। इनका निर्माण पौराणिक आख्यानोंके अनुसार कलिगनरेश करकण्डने कराया था, जो पार्श्बनाथ और महावी रके अन्तरालमे हुआ था । यह काल ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी होता है । इसके बादकी मौर्यकालीन एक मस्तकहीत जिनमूर्ति पटनाके एक मुहल्ले लोहानीपुरसे मिली है । वहाँ एक जैन मन्दिएकी नीव भी मिलो है। मूति पटना सग्रहालयमें सुरक्षित है। वैसे इस मू्तिका हडप्पासे प्राप्त नग्नमूतिके साथ अद्भुत साम्य है । ईसा पर्व पहली दूसरी शताब्दीके कलिंगनरेश खारबेल के हाथी-गुंफा शिलालेख से प्रमाणित है कि कृङिगमे सवंमान्य एक 'कलिंग-जित की प्रतिमा थी, जिसे नन्दराज ( महापशनन्द ) ई. पूर्व. चौथी-पाँचबी इताब्वीमें कलिगपर भाक़मण कर अपने साथ मगध ले गया था। और फिर जिसे खारबेल मगधपर आक्रमण करके वापिस कलिग ले आया था । इसके पश्चात कुषाण काल ( ई. प्‌ प्रथम शताब्दी तथा ईसाकी प्रथम शताब्दी ) की और इसके बादकी तो अनेक मूर्तियाँ मथुरा, देवगढ़, पभोसा आदि स्थानोपर मिली है। तीर्थ और मूतियोपर समयका प्रभाव ये मूर्तियाँ केवल लो क्षेत्रोंपर ही नही मिलती, नगरोंमें भी मिलती हैं। तोर्थ क्षेत्रोंपर तीथकरोंके कत्याणक स्थानों और सामान्य केवछियोके केवलशान और निर्वाणस्थानोंपर प्राचीन कारूमें, ऐसा लगता है, उनकी मूर्तियाँ विराजमान नहीं होती थी। त॑,थकरों के निर्वाण स्थानकों सौधमेंन्द्र अपने वजदण्डसे चिह्नित




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