ब्रजभाषा सूर - कोश प्रथम खण्ड | Brajbhasha Soor-Kosh Part -1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(৭ ) है दवा (नल) आयौ। घेरि चहु ओर, ' करि सोर अदोर बन, घरनि भाकास चहेँ पास छायो-५९६ । अंध-वि० [स०] (१) नेत्रहीन । (२) अज्ञानी, अंविवेकी । (३) अन्धकारपुर्ण । उ>जेस अधो জনন मै गनन न 'खाल-पनार--१-८४ । (४) असावधान, अचेत ॥ (५) उन्मत्त, मतवाला । उ --काम अध कषु रहीन संमारि। दुर्वसा रिषि कौ पग मारि-६-७ । (६) प्रखर, तीन्न । 3०-- कयौ राघा फिर मौन ग्यौरी। जसे नउमा अव भंवर खर तंसहि तं यह्‌ मौन श्यौ रो--१३१० । सजा पृ --(१) नेत्रहीन प्राणी] (२) ` अंधकार 1 ' (३) ` घुत्तराष्ट्‌ । यौ.-अधघसुत--घृतराष्ट्र के पुत्र / उ- अबर गहत द्रौपदी र्वी, पलटि; मधसुत' लाजं-- १-३६ । श्रधकार-षना पु [জ ] (৫) শীলা, -तम'1*(२) अज्ञान, मोह । (३) उदासी, कातिदीनता । अंधकाल--सना पु [सं 'अधवकार | अंधेरा । अंधकाल[--पत्ञा पु [सं अबकार [[अेंयेरा, अधकार । उ., ऐसे बादर सजल करत अति महाबल 'चलत घहरात হি अधकाला--९४६ | अंधकूप -सज्ा पु '[स] (१) सूखा कुआँ। (२) (२) अंधेरा । अंवधुंध->सजा पु [स अध >अध्रकार +हिं धुंध] (१) अंधकार, अंधेरा । उ,--अति विपरीत तुनावतें मायौ । बात चक्र मिस ब्रज के ऊपर नद पौरिके भीतर भयौ । अधधुध्र (मँवाघध) भयौ सव-गोकुल-जो जहा रह्यो सो तहँ छपायौ-१०. ७७। (ख) कोड ल मोट रहत वृच्डन की सधघधध दिसि बिदिस भुलाने--९५१। (ग) अघरधुघ मग फट न सूज्ञं --१०५० । (२) अंधेर, अनरीति । अंधवाई--सज्ञा स्त्री. [स अंववायु] घूलमरी आाँधी, অনন্ত । उ --स्याम अकेले आँगन छाँडे, आपु गई कषु काज घरे । यहि अतर अँबववाइ उठी (अँववाह उट्यो ) इक गरजत गगन सहित धह? -- १०-७६ । संधमति-वि [स ] नासमन्न मखं ! उ -रे दसकध, अघमति, तेरी भायु तुलानी मानि--९-७९। अंधर-वि [स अधका र] अंघकारमय । झंधरा--सज्ञा पु. [स. अब] अघा प्राणी । वि--जो अधा हो । अधवाह--सज्ञा छत्री [स, अधवायु, ' हि. অননাহ] मधी । उ.-( क ) हि अतर अँधबाह उठचो इक, गरजत गगन सहित'घहरै--२०-७६ ) (ख ) धावहु नन्‍्द गोहारि लगौ क्न, तेरी सुत' अंधवाह उडायो--१० ७७ ! अंधाधुंध--सज्ञा स्त्री [ हि अधा+धुध ] ( १) बड़ा अधेरा, घोर अंधकार } उ.--अतिविपरीत तुनावतं आयौ । वात-चक्र-मिस् ब्रज ऊपर परि, नदपौरिके भीतर धायौ । ---“* । अवाच्‌ घःभयौ सव गोकुल, जो जह र्यौ सो तही छपायौ-- १०-७७ । ( २ ) अंधेर, अधिचार । अंधार--सज्ञा पु. [स, अधकार, प्रा. अंवयार | अंधेरा, अघकार । अंधियार--सज्ञा पु [[स॒० অনা, “সা, -তঘজাহ] अधेरा, अंघकार । वि.--अघकार, तमाच्छादित । उ5.--भय- 'उदधि जमलोक दरसे निपट ही भ्रेंधियार--१*८८ | अधियारा--सज्ञा पु [प्र. अधकार, प्रा. मेंधयार ] ( १ ) अंधेरा, अंधकार घुधलापन। 'वि.--( १) प्रकाशरहित। (२) घुघला। (३) उदास, सुना । अंधियारी-सज्ञा स्त्री [प्रा. भंधयार + हि. ई - अँधा री] (१) तेज आँधो जिससे अधकार छा जाय,काली आँधी 1 उ.-ता संग दासी गई अपार। न्हान लगी सब घमन उतार । अँधियारी आई तहें भारी | दनुज सुता तिहि ते न मिहारी । बसन सुक्र तयना के लीन्‍्हे। करत उतावलि परे न षीन्हे--९-१७४ 1 (२) अंधकार । वि.--अ धका रपुूर्ण अंधेरी । भादौ की रात-- १०-१२ । अशधियारे--सजा सवि (ह° मंधियारा] । भधरेमे। उ.-सूर स्याम मदिर भंधियार, ( नुवति) निरखति वारवार--१०-२७७ । वि---मंघकारमय, प्रकाशरहित ! उ -ंचियारं चर स्याम रट दुरि-१० २७८ । उ.-धेधियारी +~ --- ----- শশী শত এটি .-*~




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