ब्रजभाषा सूर - कोश प्रथम खण्ड | Brajbhasha Soor-Kosh Part -1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
62 MB
कुल पष्ठ :
1018
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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है
दवा (नल) आयौ। घेरि चहु ओर, ' करि सोर
अदोर बन, घरनि भाकास चहेँ पास छायो-५९६ ।
अंध-वि० [स०] (१) नेत्रहीन । (२) अज्ञानी,
अंविवेकी । (३) अन्धकारपुर्ण । उ>जेस अधो
জনন मै गनन न 'खाल-पनार--१-८४ । (४)
असावधान, अचेत ॥ (५) उन्मत्त, मतवाला ।
उ --काम अध कषु रहीन संमारि। दुर्वसा रिषि
कौ पग मारि-६-७ । (६) प्रखर, तीन्न । 3०--
कयौ राघा फिर मौन ग्यौरी। जसे नउमा अव
भंवर खर तंसहि तं यह् मौन श्यौ रो--१३१० ।
सजा पृ --(१) नेत्रहीन प्राणी] (२)
` अंधकार 1 ' (३) ` घुत्तराष्ट् ।
यौ.-अधघसुत--घृतराष्ट्र के पुत्र / उ- अबर
गहत द्रौपदी र्वी, पलटि; मधसुत' लाजं-- १-३६ ।
श्रधकार-षना पु [জ ] (৫) শীলা, -तम'1*(२)
अज्ञान, मोह । (३) उदासी, कातिदीनता ।
अंधकाल--सना पु [सं 'अधवकार | अंधेरा ।
अंधकाल[--पत्ञा पु [सं अबकार [[अेंयेरा, अधकार ।
उ., ऐसे बादर सजल करत अति महाबल 'चलत
घहरात হি अधकाला--९४६ |
अंधकूप -सज्ा पु '[स] (१) सूखा कुआँ। (२)
(२) अंधेरा ।
अंवधुंध->सजा पु [स अध >अध्रकार +हिं धुंध]
(१) अंधकार, अंधेरा । उ,--अति विपरीत
तुनावतें मायौ । बात चक्र मिस ब्रज के ऊपर नद
पौरिके भीतर भयौ । अधधुध्र (मँवाघध) भयौ
सव-गोकुल-जो जहा रह्यो सो तहँ छपायौ-१०.
७७। (ख) कोड ल मोट रहत वृच्डन की सधघधध
दिसि बिदिस भुलाने--९५१। (ग) अघरधुघ मग
फट न सूज्ञं --१०५० । (२) अंधेर, अनरीति ।
अंधवाई--सज्ञा स्त्री. [स अंववायु] घूलमरी आाँधी,
অনন্ত । उ --स्याम अकेले आँगन छाँडे, आपु गई
कषु काज घरे । यहि अतर अँबववाइ उठी (अँववाह
उट्यो ) इक गरजत गगन सहित धह? -- १०-७६ ।
संधमति-वि [स ] नासमन्न मखं ! उ -रे दसकध,
अघमति, तेरी भायु तुलानी मानि--९-७९।
अंधर-वि [स अधका र] अंघकारमय ।
झंधरा--सज्ञा पु. [स. अब] अघा प्राणी ।
वि--जो अधा हो ।
अधवाह--सज्ञा छत्री [स, अधवायु, ' हि. অননাহ]
मधी । उ.-( क ) हि अतर अँधबाह उठचो
इक, गरजत गगन सहित'घहरै--२०-७६ ) (ख )
धावहु नन््द गोहारि लगौ क्न, तेरी सुत' अंधवाह
उडायो--१० ७७ !
अंधाधुंध--सज्ञा स्त्री [ हि अधा+धुध ] ( १) बड़ा
अधेरा, घोर अंधकार } उ.--अतिविपरीत तुनावतं
आयौ । वात-चक्र-मिस् ब्रज ऊपर परि, नदपौरिके
भीतर धायौ । ---“* । अवाच् घःभयौ सव गोकुल,
जो जह र्यौ सो तही छपायौ-- १०-७७ । ( २ )
अंधेर, अधिचार ।
अंधार--सज्ञा पु. [स, अधकार, प्रा. अंवयार | अंधेरा,
अघकार ।
अंधियार--सज्ञा पु [[स॒० অনা, “সা, -তঘজাহ]
अधेरा, अंघकार ।
वि.--अघकार, तमाच्छादित । उ5.--भय-
'उदधि जमलोक दरसे निपट ही भ्रेंधियार--१*८८ |
अधियारा--सज्ञा पु [प्र. अधकार, प्रा. मेंधयार ]
( १ ) अंधेरा, अंधकार घुधलापन।
'वि.--( १) प्रकाशरहित। (२) घुघला। (३)
उदास, सुना ।
अंधियारी-सज्ञा स्त्री [प्रा. भंधयार + हि. ई - अँधा री]
(१) तेज आँधो जिससे अधकार छा जाय,काली आँधी 1
उ.-ता संग दासी गई अपार। न्हान लगी सब
घमन उतार । अँधियारी आई तहें भारी | दनुज सुता
तिहि ते न मिहारी । बसन सुक्र तयना के लीन््हे।
करत उतावलि परे न षीन्हे--९-१७४ 1 (२)
अंधकार ।
वि.--अ धका रपुूर्ण अंधेरी ।
भादौ की रात-- १०-१२ ।
अशधियारे--सजा सवि (ह° मंधियारा] । भधरेमे।
उ.-सूर स्याम मदिर भंधियार, ( नुवति)
निरखति वारवार--१०-२७७ ।
वि---मंघकारमय, प्रकाशरहित ! उ -ंचियारं
चर स्याम रट दुरि-१० २७८ ।
उ.-धेधियारी
+~ --- ----- শশী শত এটি .-*~
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