श्री नेमिदूतम | Shri Nemiduttam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१२) यही उत्तरमेघ' की अमराबती है, जहों योगी को साऽहं की अनुभूति होती हैः-- सो5हमित्यात्तसंस्कार॒स्तस्सिन. भावनया पुनः इस रूपक की वास्तविक पूति तभी होती है, जव यत्त अपनी प्रिया से मिल जाता हैं, जब सोऽहं की अनुभूति प्राप्त हो जाती है। इसीलिये अन्तिम ठो पदों मे दोनों का सिलन दिखा दिया गया है। संभवत दो पढों में कथा एक दस शीत्रता से समाप्त होने तथा इतना सहसा मिलन होने के लिये आलोचक के तैयार न होने से वे उसे अज्िप्त मानते हैं। ऐसे लोगों को भारतीय साहि- त्य की विशेषता-- विशेष रवीन्द्र वाबू के निम्न लिखित शब्द याद रखने चाहिये--महाभमारत में यही बात है। स्वरगरिहरण पर्ग में ही कुरुच्षेत्र के युद्ध को स्वर्ग लाभ होगया। कथाप्रिय व्यक्तियों को जहां कथा-समाप्ति रुचिकर होती, वहाँ मह्मभारतकार नहीं रुके, इतनी बड़ी कहानी को धूल के बने घर की भांति वे एक क्षण से छिज्न-सिन्न कर आरे बढ गये । जो संसार से विरागी हैं और कथा-कहानियों को डउदासीन भाव से देखते हैं, उन्होंने ही इसके भीतर से सत्य का भी अलुसंघान किया, थे छुब्ध नहीं हुये |” बिल- कुल यही वात सेघदूत के लिये कही जा सकती हू ।., यही कारण है कि जैन सनीपियां और महात्मा ने मेघ- दूत के लेखक कालिदास को (सद्‌ मूतार्थप्रवर कचि' माना है श्मौर उसके अलुकंरण पर जैन मेघदूत, नेमिदूत, शीलदूत, पाश्वभ्युदय आदि ग्रन्थ लिखकर न केवल सदाचार और संयस का आदश स्था- पित किया अपितु परमार्थे-तत्त्त का भी निरूपण कर दिखाया और साथ ही काव्य की भाषा से रखने से उसे सरसता भी प्रदान की | उक्त अन्तिम दौ पदों की टीकाकारों धारा उपेक्षा होने का कारए। केवल यही हो सकता है कि; वे कषित्व की दृष्टि से उत्तम नहीं, केवल कथा उनसे द्र्‌ तगति से छल्लांग मास्ती है । इसी कारण संभवतः ये




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