भक्ति - तत्त्व | Bhakti Tattav

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Bhakti Tattav by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भक्तिके विविध स्वरूप [ ६ ऐसा कहकर शआालोटती है । कहनेका अर्थ यह है , कि भक्त सुक्तिकी श्राकांक्ता नहीं रखता, लेकिन मुक्ति उसके पीछे-पीछे घूमती हे । इससे यह सिद्ध होता है, कि जिस भक्तिमें मोक्तकी प्राप्तिभी तुच्छ मालूम पडती हे चद्दी अहेतुकी भक्ति है। हस भक्तिसें कृतज्ञताका भी स्थान नहीं है। भगवानने मुझे ऐसी सुख-सामग्री दी हे, इसलिए मुझे उनकी भक्ति करनी चाहिएपु--इस तरहके विचारोंको स्थानद्वी नहीं है, क्योंकि “ भ्रददेतुकीका मतलब किसी प्रकारके हेतु या कारण-रहित भक्ति है। इस भक्तिका मूल सूत्र 'प्रेमके लिएही प्रेम'- यद्ठ है। ईश्वर प्रिय है इसलिएही उनपर प्रेम करता हैं--इस प्रारह्ती भावना इससें स्वाभाविक ही होती है। अहेतुझ भक्त इश्वरके सिवाय दूसरी किसी प्रकारकी चस्तुमें प्रेम नहीं रखता । सुख्या भक्तिभी इसीका ही नाम हे। भक्तिके, ऊँचे प्रकारकी और नीचे प्रकारकी--ऐसे दो भेद हैं। वागात्मिका, सुख्या और अहेतुकी-य्रे ऊँचे प्रकारकी भक्ति हे। वेधी, हेतुकी और गौणी ये नीचे दरजेडी है। निम्व प्रदारकी भक्तिसे प्रारम्भ करके साधकगण श्रेष्ठ प्रकारकी भक्तिके अधिकारी बनते हैं । भक्ति रसाम्रत- सिंधुमें कहा है किः-- वैधमकत्याधिकारी तु भावाविर्भावनावधि | तत्र शास्त्र तथा तक्रमनुकूलमपेक्षुते ॥ जबतक भावरा शआविर्भाव नहीं होता तबतक वैधी भक्तिकी साधना करनी चाहिए। वेधी भक्ति, शास्त्र और श्रनुकूल त्केकी अ्रपेष्षा रखती है। भाव होनेसे राग होता है, और राणसेंसे रागात्मिका भक्तिका उदय होता है । भक्ति शास्त्रके श्रवण मननसे तथा भगवानके संवंधसें युक्ति और तकं करनेसे भगवानके प्रति आऊर्षण होता हे, और इस श्राकर्षणसेंसे भाव उत्पन्न होता है, भावमेसे राग कौर वादमे रागसे रागान्मिका भक्तिका सनम होता है ।




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