प्रत्यागत | Pratyagat

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Pratyagat by वृंदावनलाल वर्मा - Vrindavan Lal Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रत्यागत १७. जा बैठा । इस हरफत फो देखकर सभापत्तिजी ने आँख तरेरी । टीआऋराम भी देखकर ज़रा व्यथित हुए, परंतु कीत्तन में कोई स्तास रुआचट नहीं पड़ी । जब और सच लोग गा रहे थे; तव मंगलदास से उस लड़के के कान में कहा--/पंडितजी गजरों के भार से লু सेजा रहे हें।! ' लड़के नें सोर के साथ पंडितेजीं की ओर देखा, ओर पंडितजी तो देख हो रहे थे; लड़के ने दूसरी ओर दृष्टि फैर जली। पंडितज्ञी समंभ गए कि मेरे विषय में ही कुछ कष्टा है । मंगलदास ने देखा कि लड़के के मन में चुलबुली पेदा नहीं हुईं. तब चूटकी लेकेर घोला-- ज़रा सुनो जी, सच लोग गा रहे हैं, अकेले हमारे-तुम्दारे गले बंद रहने से उत्सव फोका न पड़ेगा ।? क लड़के ने डरते-डरते नीची निगाहों से पंडितनी की ओर ताकेंकर कहा--“कहो न, जल्दी, क्‍या कहते हो | पंडितजी हम लोगों की ओर धुर रहे हैं |? लड़के ने एक अनूठी वात कहने का प्रयत्न किया था। ` तुरत मंगलदास ने कानमे बड़ी गंभीरता के साथ फहद्दा-- केसा से की तर्द रेंकता है !” अनूठी बात कद्दने के प्रयत्न ने हस ठठोली के लिये उस लड़के के मन में बेक़ाबू जगह: कर दी थी। भेंसा और रेंकना |! खिलखिलाकर हँस पढ़ा । मंगलदास को-भी अपने/ही शब्द-चातुय पर हँसी आ गई।




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