नानेश वाणी - १० समीक्षण ध्यान : एक मनोविज्ञान | Nanesh Vani - 10 Samikhshan Dhyan : Ek Mano Vigyan

Nanesh Vani - 10 Samikhshan Dhyan : Ek Mano Vigyan by आचार्य श्री नानेश - Acharya Shri Nanesh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समीक्षण ध्यान एक मनोविज्ञान / 7 चंचलता भी शुभ है - मानले कि मन चचल है। फिर भी वह चचलता ही तो आत्म साधना के लिये भी प्रेरित करती है। वही उच्च साधको और साधना केन्द्रो तक पर्हुचने की प्रेरणा प्रदान करती है | मन चचल है, इसलिये तो वह कही भी सन्तुष्ट नही होता या स्थिर नही होता- विश्रान्ति नही लेता । उसे रूप मिला तो वह उससे श्रेष्ठ रूप की खोज करता है | रस मिला तो मधुरतम रस की खोज मे ओर अधिक दौडता है । गध, स्पर्श ओर शब्द मिले तो वहा भी उसे अपनी उपलय्ि मे कहा सन्तोष ই? वह उससे श्रेष्ठतम की खोज व चर्चा चालू ही रखता है | यह मन की चलता ही तो ऊँचे से ऊंचे स्थान की ओर चैतन्य को दौडाती हे। उसे अधिक से अधिक आगे बढाने को प्रेरित करती हे। यदि मन चचल नही होता तो क्रोधी व्यक्ति क्रोध भाव पर ही स्थिर हो जाता। मानी मान पर ओर लोभी अपने लोभ पर ही चिपक कर बैठ जाता | विषयी तो वासना मे ही जडीभूत हो जाता, किन्तु एेसा नहीं होता हे। मन अपनी गति को रोकता नही, उसे कही विश्रान्ति नहीं मिलती । इसका अर्थ यह नहीं है कि मन-विश्रान्ति नही चाहता है| वह दौडता ही रहना चाहता है। मन- विश्रान्ति चाहता है। किन्तु वह अपूर्ण मे नही रूकना चाहता है। वह सदा परिपूर्णता की खोज मे दौडता- भटकता है। वह थोडी उपलब्धि से समझौता नही करता | वह पूर्णता मे समाहित-अवगाहित होना चाहता है | वह अधूरी नही, पूर्ण समता चाहता है । वह एकात्मा से नही, विश्वात्मा, समस्त चराचर या परमात्मा के साथ एकाकार (तुल्य) होना चाहता है । मन इसलिये चचल है कि वह इन्द्रियो के आकर्षणो को, अशान्ति को छोडकर परम शान्ति की ओर आगे से आगे बढना चाहता है। जैसे मधुकर मकरन्द के लिए एक पुष्प से दूसरे पुष्प पर ्मेडराता रहता हे, उसी प्रकार मन भी अधूरी तृप्ति के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान पर एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय पर, एक विषय से दूसरे विषय पर दौडता रहता है । मन की चचलता के सन्दर्भ मे एक रहस्यमय विमर्शं यह है कि वह पूर्णं विश्रान्ति चाहता है । अल्पकालिक अथवा




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