विवेक की बातें | Vivek Ki Baten

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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/ अस्तद्रष्टा बन दोषः दूसरो के क्यो देखे, सता ‹ उससे अथं - नही, ' क्यों करता है पर की चिन्ता, वोझा' है यह व्यर्थ सही । कर अपनी नित आत्मस्साधनी, क्यो रहता 'है खिन्तमना, अन्तदर्टा बनकर अपनी, ` आत्मा शोध्य विशुद्ध वना ॥। न / इससे बटकर नहीं ते हु १ <न के मल को साफ करे जो, इससे व्रढकर्‌ स्नान नही, सव जीवो को अरय, बनाये, ,इससे _ वढकर दान नही । - अपने को जो झट पहचान, . इससे बढकर ज्ञान- नही, , निविकार मन जो रख पाये, इससे बढ़कर ध्यान नही ।। 8 घणां क्यौ . /दुराचार से दूषित नर से, घृणा न करते पुरुप महान्‌; सद्वचनो के सावन से घो, उसे वनाते स्फटिक समान । सलिन वस्त्र को घृणित समन्लकर, क्या को$ तज देता हैः निर्मल जल से धोकर उसको, अधिक स्वच्छ करः लेता है 1 ष से क्‍या हूं ? विप-सम सयम, व्रत यम के सम, अत्म-ध्यान जसे कारा, णिसा सन्तो की पावक सम, तप लगता असि कौ धारा कर्मदोष से सन्तो का भी, सग कभी न मुझे भाता, दूर भव्य या मैं अभव्य हूं, हैं भगवन्‌ व ही ज्ञाता॥ विवेक की वातं १६




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