आधुनिक हिंदी - काव्य में नारी भावना | Adhunik Hindi Kavya Me Naari Bhawna

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Adhunik Hindi Kavya Me Naari Bhawna by शैलकुमारी - Shailkumari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका ] ७ ( ३ )कष्णोपासक भक्तों की, जिसके प्रमुख कवि सूर हैं और ( ४ ) प्रेममार्गियों की, जिसके प्रमुख कबत्रि जायसी हैं | साम्प्रदायिक-हष्टि से इन चारो में चाहे जो भी भेद रहा हो; किन्तु नारी के सम्बन्ध में इन सबका दृष्टिकोण एक हो हे | (भक्ति-युग की सभी धाराश्रों में नारी के दो रूप दिखाई पड़ते हैं; सामान्य तथा विशेष | प्रथम रूप लौकिक तथा यथार्थ है और द्वितीय काल्पनिक, पारलोकिक तथा आदर्श | प्रथम रूप में-नारी निन्दनीय है, दुर्ग णों को खान है, माया का प्रतीक है, श्रीर्‌ द्वितीय सूप में वह गआह्य तथा आदरणीय दे । ) नागौ क सामान्य या वथाथं रूप के सम्बन्ध में ससी मक्त-क्वि एक स्वर से घ॒ुणा- त्म -पावना को अभिव्यंजना करते हैं। यह भावना क्रोध और हिंसा से भरी हुई है। मक्त कवियों ने नारी को आध्यात्मिक मार्ग की बाधा के रूप में देखा है ।* इसीलिए रसे भ्रष्ट करनेवाली माया का ही साक्षात्‌ रूप माना है |* उसमें तोत्र आकर्पण है, किन्तु सन्त को उससे दूर रहने के लिए इन कवियों ने वार-बार चेतावनी दी है 1१ कल्लतः भक्त-कवियों ने नारी को 'सर्पिणी?, 'वाधिनीः, 'पैनो छुरी?, ¶विव को बेलि श्रादि विशञेगख दिए ह । भक्त- कवियों का विश्वास है कि स्त्री में काम-प्रवत्ति अत्यन्त प्रवल होती है,* इसलिए वद्धा तथा जननी पर भी विश्यात करना वे उचित नहीं समझते ' और छोटी-मोयी कामिनी सब ही को विप की वेलि कहते हैं | प्रेम के ज्षेत्र में सी नारी को अस्थिर तथा छलपूण माना गया है ।७ भक्त-कवि नारी को अत्यन्त नीच तथा कपटी मानते हैँ, जो अपनी नीच इच्छाश्रों की पूर्ति के लिए. सब कुछ कर सकती है [5 यहाँ उसकी शक्तियाँ अदम्य ई, पुरुप उको सम पने में असमर्थ रहता है ।* नारी को इतना दुर्गणों से युक्त और भ्रविश्वलनीय मानते हुए, कवि टोल-गंवार और पशु तक से उसकी तुलना कर देता है और ताड़ना का सहज अधि- कारो वता देता है [५९ $सृरदास---सूरसुधाः ““काप्त क्रोष- “और” पद १७, ए> ८ | वही-- प्वौरेसन'' ***बौराना” पद १-२, छ० ३१] कबीर-...चलौ-चलौ “****“दोय,”” ख० बा८ खं> सागे १, दोहा १, प्रू० ७८ | चही-- पनारी-नसावे' * 'कोय”?, दोहा ८ ভুত ७८ | श्तुलसो--राम चरित मानस, तृतीय सोपान दोहा ७६-७७ एू८ ३२० | ও এ मेहर ८५ छ० ३२११ डबही--“श्राता' * ***विलोकी!', दोड़ा २९, ए. २९५९ १ लह--लं> बा सं० साय १, दोहा १-२७ एछ+ २२३ इंकवीर-..सं० बः० सं० भाग १, दोहा १४ परऽ ५९] ७ष्षुर-पस---सुरमामर्‌, नकम स्कध, पद्‌ ४४६३ । प्तुनसी--रामचरित सानस, द्वितीय सोपान, दोहा ४८, पर . १७६ | °वही--^यथपि' * *अवगाहू? दोहा २८, ए० १६८ | ९ ०बही--रोंच रे सोपान, ¶०.२३३६] কচ | পি




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