मेरे कथागुरुका कहना है | Mere Khathaguruka Kehna Hai

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Mere Khathaguruka Kehna Hai by लक्ष्मीचंद्र जैन - Lakshmichandra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महान शिक्षक एक युवक सु वड़ा चरिवान्‌ और तेजस्वी था। चरित्र-गठन और ब्रह्मचयंसम्बन्धी उसकी शिक्षाओका नगरके लोगोपर बहुत प्रभाव पडता था। संयोगवश उसके रूप ओर तेजका नगरकी कुछ युवतियापर ऐसा प्रभाव पडा कि वे उसकी ओर आकृष्ट होने लगी ओर धीरे-बीरे वह साधु युवक भी उनके प्रेम-जालम फेस गया | रातकों उन तरुणियोके साथ ग्रेम-लीलाएँ और दिनकों सदाचार और ब्रह्मचर्यके उपदेश --यही उस साधुकी अत्र दिनचर्या हो गई | धीरे-धीरे साधुके पतनकी बात नगरमे फैल गई | ऐसी बात छिपी मी कत्र तक रह सकती थी ! नगर-वासियोमे उस साधुकी तरह-तरहको आलोचनाएँ होने लगी। नगरके कुछ प्रतिष्ठित बढ़े-बूढ़ोने उसे समझाया कि वह अपना चरित्र सुधारे, और अगर ऐसा न कर सके तो ब्रह्मचर्योपदेशका अपना पाखएड बन्द कर दे | उन्होंने कह्म कि जिसका चरित्र गिरा हुआ हो, उसे दूसरोकी चरित्रवान बननेका उपदेश देनेका कोई अधिकार नहीं है, और न उसके उपदेशका कोई प्रभाव दी पड़ सकता है । लेकिन यह युवक साघु अपना चरित्र न सम्हाल सका। फिर भी उसने अपने उपदेशका सिलसिला बन्द न किया | अब लोग उसकी शिक्षाओपर हँसने लगे । उसकी बात सुननेवालो- की संख्या घटते-घच्तें बहुत कम हो गई । बड़े-बूढ़े अपने नवयुवक बच्चोको उसके पास जानेसे रोकने लगे | अपने अति विल्ञासके कारण वह धीरे-धौरे बहुत दुचला और रोगी हो गया। उसकी प्रेमिकाओंने भी उसका साथ छोड़ दिया ।




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