निर्वसना | Nirvasanaa

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Nirvasanaa by श्री गोपाल आचार्य - Shri Gopal Acharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मिवसना १५ वस्तु है। उसे उसके चारीर, सौदय और योवन से अलग नहीं किया जा सकता 1 “ “मानता हू, वि कपना ओरं प्रशन म अतर है पर आप तो शदा के विश्लेषण में पड़ भय, मैनेजर साहब | सास्क्ृत्तिक भावरण को छोडिय | सीधी बात पर आइयं । वह पष्ठमूमि ता अपरिचित व्यक्ितया के लिए सुरक्षित रखी जानी चाहिए। 'तो सुनिये, अपोक बाबु। हृदयशजी की भी यदि यही राय है, तो, प्रि वही हो । मैं आपके और हृदयेशजी के मत से पूणत सहमत हू। मेरी तो एक लम्बे अरसे से यही राय रही हैं कि कला जहा प्रदशन से सर्वाधित ही यौवन और सौन्दय से अलग नहीं वी जा सकती बल्कि यौवन और सौन्दय का प्रदणन ही कला है। उसकी उपस्थिति ही वलात्मक है। जहा बदन का प्रश्न हो वहा तो सास्दतिक कला पर जनएचि को प्रधानता देनी ही पढेगी + अब तो आप बहुत स्पष्ट हा रह हैं। “अभी और भी अधिक रपष्ट होता ह, अशोक बाबू । जिस वला के प्रदणन के लिए योवन और सोदय वी आवश्यकता होती है उसी को खोज मे जात्र हम आपके पाम आये हैं। हृदयेशजी अपनी एक छृति मे ऐसी परि स्थितिलाय हैं जिसम आपकी जनरुचि के प्रतीक योवन और सोन्दय अपनी प्राइतिक अवस्था म जनता क॑ सामने आयेंगे। अब हमारी सस्या भी केवल बरात्मक प्रदेशत ही नही देगी, अशोक दावू बल्कि, स्वय कला को भो प्रदशत किया करेगी । हम एक ऐसी रमणी की आवश्यकता है जा कलारूप में अपने योवन और सौ दय को बिना आवरण रगभूमि पर प्रदर्शित कर सबे। हृदयेश जी की राय है और उस राय का मैं भो समर्थक हू, अशोक बाबू, कि उस रमणी को बहुत थोडे अरस म ही हम सव-श्रेष्ठ कलाकार वो स्याति और सम्पन्नता प्राप्त कराने म समथ होगे। ” नारी--निवसना--रगभूमि पर ! यही नो जापको आदश्यकता है, मनेजर माहव । * बिलकुल यही, जगा बाव्‌ ! नारी का रमणा प। रमणा की रम णीयता--उमका यौवन ओर सौल्य ! जा दरनाय है वह प्रदशनीय/मी




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