कवी प्रसाद, "आँसू" तथा अन्य कृतियाँ | Kavi Prasad, "Aansu" Tatha Unya Kratiyan

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Book Image : कवी प्रसाद,

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यहपि भारतेन्दु युग में कविता में नये विषय और नयी भाषा की ओर कवियों का ध्यान गया अवश्य, पर उसकी अ्रभिव्यञ्जवा प्रणाली में--ढ़ाँचे सें-- कोई परिवतंव दृष्टिगोचर नहीं होता । वही पुराने छन्द (कवित्त सवेया झादि) वही पिष्टपेषित भ्रलझ्भार ! रचनाएँ रूढ़ि-श्ंडलला से जकड़ी हुईं दीखती है । कभी-कभी विरहा, गज़ल, रेखता और कजली छन्दों में भी कविताएँ मिलती हैं । पर इन छन्दों की ओर प्रवृत्ति उन्हीं कवियों की पाई जाती है,जो उर्द-फारसी से विशेष परिचित थे। (हरिश्चन्द्र के समय हिन्दी छन्दों का प्रचलन नही हुआ था। हरिश्चन्द्र श्रौर उनकी प्रेमिका मल्लिका ने बंगला छन्दो को धरपनाया था ।) मुक्तक # रचनाएँ ही इस काल में मृस्यतः लिखी गई ॥ प्र विषय मे श्राश्चय की श्रन्तवत्ति की छाया न रहने से वे विश्चेष रसवती न बन सकं भारतेन्दु के पश्चात्‌ स्व० भ्राचायं पं महावीरप्रसादजी द्विवेदी के सरस्वती का सम्पादन-मार प्रहरण करने प्रर हिन्दी-साहित्य उन्हीं को केन्द्र बना कर गतिशील हुआ । हिन्दी साहित्य पर क्रमशः उनका प्रभाव फैल गयां ॥ लगभग सन्‌ १९०४ से सन्‌ १९२० तक उन्हीं की साहित्यिक मान्यताओं भ्रौर विद्वासं को अधिकांश हिन्दी साहित्यकारों ने पपवाने की वेष्टा की! भ्राधूनिकता की दूसरी मोड़ के दक्षन यहीं से होते है । श्रतएवं काव्य सम्बन्धी उनकी घारणभ्रों को जान लेना भ्रावच्यक ह । श्राप लिखते ह-- “ श्रन्त.करण की वृत्तियों के चित्र का नाम कविता ह । नाना प्रकार के योग से उत्पन्न हुए मनोभाव जब मन में नहीं समते, तब वे भ्रापही श्राप मख कै मायं से (क्लम की राह भी उनके लिए रुँधी हुई नहीं है --लेखक) बाहर निकलने लगते ह; श्रथात्‌ वे मनोभाव शब्दों का स्वरूप धारण करते है । यहीं कविता हू 1“... ...श्राजकल लोगो ने कविता भ्रौर पद्य को एक ही चीज समम क मुक्तक--उसे कहते हं जो सक्त है-- स्वतंत्र है, जिसका सम्बन्ध पिछले पद्मों से नहीं है और न जो श्रानेवाले पद्यों की भूमिका है। जिस अकेले पथ ही में विभाव-पनुभाव आदि से परिपुष्ट इतना रस भरा हुआ हो कि उसके स्वाद से श्लोता पाठक तृप्त हो जायें, सहृदयता की प्यास बुझाने को उसे अगली-पिछली कथा का सहारा न लेना অভ, অই 'मुक्तक' कहलाता है । हिन्दी में. मक्तक' को ही फूटकर कविता' कहते हूँ ।” मक्तक” म कवि को गागर मं सागर' भरता पड़ता हूँ। इसीलिए ऐसे काव्य में सौन्दर्य भरने के लिए कवि को क्षब्दों की झभिधा शक्ति से कम, ध्वनि व्यञ्जना से श्रधिक काम लेना पड़ता है । बिहारी के दोहे मुक्‍्तक का भच्छा उदाहरण कहे जाते हैं । (८ )




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