स्वदेश - संगीत | Swadesh Sangiit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मारलवर्य मस्तक ऊँचा हुआ मही का, धन्य दिमालय का उत्कषे | हरि का क्रीड़ा-कषेत्र माराः भूमि-माम्य-सा मारतवये || हरा-भरा यह देश बना कर विधि ने रवि का मुकुट दिया, पाकर प्रथम प्रकाश जगत ने इसका ही अनुसरण किया | प्रभु ने स्वयं 'पुर्य-मू! कह कर यहाँ पूर्ण अवतार लिया, देवों न रज खिर पर ख्खी, दैत्यों का हिल गया हिया । लेखा श्र इस रिष्ट ने दुष्टों >े देखा दुद्धषे | हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा मूमि-साग्य-सा सारतवर्ष।| अद्धित-सी आदश मूर्ति है सरयू के तट में अब सी, मज रही है मोहनमुरली जज -कंशीवट मे अब मी | लिखा बुद्ध ननिवोण-मन्त्र जयपाणि-केतुपट में अब भी, महावीर की दया प्रकट है माता के घट में अब भी । मिली स्वणे-लड्ढा मिट्टी में, यदि हमको आ गया अम | रि का क्रीडा-तेत्र हमारा भूमि-माम्य-सा भारतवये || याय, अग्रत सन्तान, सत्य का रखते हे हम पत्त यहा दोनों लोक बनाने वाले कहलाते हैं दत्त यहाँ ।




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