जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला | Jain Siddhant Pravesh Ratnmala

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Jain Siddhant Pravesh Ratnmala by दिगम्बर जैन - Digambar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १६ ) व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है। उसे “ऐसे है नहो, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है --ऐसा जानना । इस प्रकार जानने का नाम ही दोनी तयो का ग्रहण है । प्रन्‍लत २३--कुछ सनीषी ऐसा कहते हैं कि “ऐसे भी है झौर ऐसे भी है” इस प्रकार दोनो नयो का ग्रहण करना चाहि्रे; क्या उन महानुभावो का कहना गलत है ? उत्तर--हा, विल्कृल गलत है, क्योकि उन्ह जिनेन्द्र मगवान कौ आज्ञा का पता नही है तथा दोनो नयो के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर “ऐसे भी है और ऐसे भी है” इस प्रकार भ्रमरूप प्रवर्तन से तौ दोनो नयो का ग्रहण करना नही कहा है । प्रश्न २४--व्यचहारनय श्रसत्याथं है । तो उसका उपदेश जिनमार्ग से किसलिय दिया ? एक सान्न निदचयनय ही के निरूपण करना धा । उत्तर-एेसा ही तकं समयसार में किया है। वहाँ यह उत्तर दिया है--जिस प्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा विना अथे ग्रहण कराने मे कोई समर्थ नही है, उसी प्रकार व्यवहार के विना (ससार में ससारी भाषा बिना) परमार्थ का उपदेश अशकक्‍्य है । इस लिये व्यवहार का उपदेश है। इस प्रकार निरचय का ज्ञान कराने के लिये व्यवहार दारा उपदेश देते है। व्यवहारनय है, उसका विषय मी है, परन्तु वहु अगीकार करने योग्य नही है । प्रन २१--व्यवहार विना निचय का उपदे कंसे नहीं होता है 1 इसके पहले प्रकार को समश्ादए ? उत्तर-निर्वय से आत्मा पर्‌ द्रव्यो से भिन्न स्वभावो से अभिन्त स्वयसिद्ध वचस्तु है । उसे जो नही पह्चानते उनसे इसी प्रकार कहते रहे तब तो वे समझ नही पाये! इसलिये उनको व्यव- हारनय से शरीरादिकपर द्रव्यो कौ सपिक्षता द्वारा नर-नारक गज र्चन्य रदरर----------- ४७७४:२#७७० का পাপের नन्त ^ 1 1 व व 60011051 : 850০199% क




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