भारतीय संस्कृति और साधना खंड - १ | Bharatiya Sanskriti Aur Sadhana Vol 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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রত भारतीय संस्कृति और साधना बात ठीक है; किन्तु इससे अद्वैत-तत्व में जो सकीर्णता आती है, उस संकीर्णता के ইনু কা पता ढूँढने पर भी नहीं लगाया जा सकता | इस जीव-जडात्मके चिश्व-वैचिच्य का हेतु क्या है ! मूल मे जब एक ही अद्वय शान-तत्व दै, तवर यह द्वैत की स्फुरणा क्‍यों होती है, तथा किसके निकट होती है ! अज्ञान का आश्रय कौन है, द्रश कोन है ! ईश्वरादि प्रयपदार्थो को अना ओर परम्परासिद्ध बतलाने का व्यवहार भी अनादि दै । शुद्ध ब्रढ्म विवर्तात्मक अनादि प्रवत्तमान व्यवहार का अधिष्ठान वा अधिकरण-मात्र है । उसका कलत ओर खवातन््य कल्पित है, वास्तव मे नही है । परन्तु, कस्पना कौन करता है ? जीव अथवा ईश्वर--पर बरहम नही करते दै । खरूप-दष्टि से लषटत्वादि सभी धम उसी मे आरोपित ओर अध्यस्त होने हे । परन्तु, वस्तुतः ब्रह्म से जीवभाव या ईश्वर- भाव किस प्रकार होता है, यह समझ में नहीं आता । बस, यह प्रवाह-रूप से अनादि है, यह कहकर ही चुप हो जाना पडता है। अजान की परवृत्ति करटो से ओर क्यो होती ट, इसका कोई उत्तर नहीं है | स्वप्रकाश सिरमभास्वर ज्ञान-सूर्य को अकस्मात्‌ अशानान्धकार कहों से आकर ढक लेता है। ज्ञान यो ही अबशभाव से उसके अधीन होकर जीन बनता है, अथवा अधीश्वर होकर ईश्वर बनता है | किन्तु, अज्ञान का प्रथमाविर्भाव ही जब समझ में नही आता, तब जीवत्व अथवा ईश्वसत्व के बीज काछ कै मन्य में अन्वेषण करके आविष्कार करने की चेश तो केवल पागलपन है | इश्वरादयवाद में मी अज्ञान है, माया है, किन्तु उसकी प्रद्नत्त आकस्मिक नहीं है। बह आत्मा का स्वातन्त्यमृलक, अर्थात्‌ स्वेच्छा-परिणहीत रुप है। नट जिस प्रकार जान-बूझकर नाना! प्रकार का अभिनय करता है, परमेश्वर भी उसी प्रकार अपनी इच्छामात्र से नाना प्रकार की भूमि का ग्रहण करते हैं। वह खतन्र टै, अपने स्वरूप को ढकने में भी समर्थ हे, और प्रकट करने में भी समर्थ दे । पर, जब वह अपने स्वरूप को ढकते है, तब भी उनका अनाबृत रूप च्युत नहीं होता। अज्ञान उनकी स्वातन्ध्य-शक्ति का विजुम्भण-मात्र है। जिस प्रकार सबितृदेव अपने ही द्वारा सर्जन किये हुए मेघ से अपते को आच्छादित करते दै, यह्‌ मी उसी प्रकार होता टै । परननु, सूर्य आच्छादित होकर भी जैसे अनाच्छादित रहते है, क्योंकि वैसा न होने से मेंघ को प्रकाशित कौन करता ! विश्व-वैचित््य भी इसी प्रकार अपने खरूप का ही विमर्श- मूलक है । क्रीडा-परायण महेश्वर की लीला ही इस प्रकार के अभिनय का कारण है। आत्माराम से स्पृह्य ही केसी ? यही स्वभाववाद है। अह्यवादी स्वभाव को बिलकुल ही नही मानते हो, सो बात नहीं है। अजान आत्मा की ही शाक्ति है, इस बात को उन्हें भी स्वीकार करना पडता है। परन्तु, ईश्वरवादी कहते हैं कि यह स्वातन्त्यमूलक, खातन्व्यात्मक, कत्तृत्वस्वरूप है, और बहयवादी कहते हैं कि यह शुद्ध साक्षी अथवा अधिड्ठन-चैतन्यात्मक है, यहीं दोनो मे प्रधान भेद है । अर्थात्‌, शाङ्कर वेदान्त में आत्मा विश्वोत्तीण, सच्िदानन्द, एक, सत्य, निर्मल, निरहड्डार, अनादि, अनन्त, शान्त, सृष्टि-सिथिति ओर सहार का हेतु, भावाभावविद्दीन, स्प्रकाश, नित्यमुक्त है, किन्तु उसमे कत्तृत्व नहीं है। परन्तु, आगम-सम्मत अद्वैत-मत से विमर्श ही आत्मा का खभाव है | शान और क्रिया उसके लिए, एक-से हैं। उसकी क्रिया दी श्ञान है; क्योंकि वह शवा




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