उपासकदशा एव अनुत्तारौपपातिकदशासूत्र (2001)ac 002mlj | Upasak Dasha And Anuttaraupapatik Dasha Sutra (2001)ac 002mlj
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
32 MB
कुल पष्ठ :
489
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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ब्रह्मचर्य, सत्ताधीशता में क्षमा और समृद्धि में शील-सदाचार का पालन करना आदर्श माना जाता
है। दसों श्रावकों के जीवन में यह आदर्श दिखाई देता है। इसी कारण इन दस श्रावकों का वर्णन इस
आगम मे किया है।
अपुव्रत का अर्थ
साधु अहिंसा, सत्य आदि का सम्पूर्ण रूप में पालन करता है। इसलिए उसके ये नियम महाव्रत
कहलाते हैं। श्रावक उन व्रतों के पालन में कुछ छूट भी रखता है, मर्यादा एवं सीमा बाँधता है और
सीमित रूप में उनका यथाशक्ति पालन करता है। इसलिए उसके व्रत “अणुव्रत' कहे जाते हैं।
'अगुब्रत' का अर्थ छोटा व्रत नहीं है। “व्रत” तो व्रत होता है, उसमें छोटा या बड़ा जैसा कुछ नहीं
होता। वह तो एक संकल्प है, एक निष्ठा है। किन्तु भोगों के प्रति विरक्ति हुए बिना व्रत का संकल्प
नहीं जगता। व्रत चाहे छोटा हो या बड़ा हो, वह तो महान् है, क्योंकि उसके साथ दृढ़ संकल्प, भोग-
विरक्ति और आत्म-शुद्धि का लक्ष्य-ये तीन बातें जुड़ी होती हैं। किन्तु व्रत ग्रहण करने वाले साधक
की भूमिका, क्षमता ओर नियम पालन की काल-मर्यादा के कारण उसके महा' ओर “अणु दो खूप
हो जाते है। अपवादरहित अर्थात् आगाररहित व्रत महाव्रत कलाते ह तथा आगार सहित व्रत
'अणुव्रत'।
प्रत्येक व्यक्ति का मनोबल, पराक्रम, धैर्य, संकल्प शक्ति, सामाजिक और पारिवारिक
परिस्थितियाँ एक समान नहीं होतीं। साधु तो सामाजिक भूमिका से ऊपर उठ जाता है, परन्तु गृहस्थ
के अपने सामाजिक, पारिवारिक तथा राजनीतिक एवं प्रशासनिक दायित्व व मर्यादाएँ होती हैं।
उनका निभाव व पालन करते हुए वह स्वयं को ब्रतों के अनुरूप ढालता है, कभी कहीं परिस्थितियों
के अनुसार ढलना पड़ता है। वह न तो उन परिस्थितियों की उपेक्षा कर सकता है और न ही उनकी
दासता स्वीकार करता है, किन्तु अपने विवेक के अनुसार समझौता करके धर्म का भी पालन करता
है और समाज-मर्यादा व पारिवारिक दायित्व को भी निभाता है।
उपासकदशासूत्र में श्रावक जीवन की इस विवेकपूर्ण चर्या का दिग्दर्शन होता है। वे समाज में
रहते हुए धर्माचरण का उत्कृष्ट और उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
धन का विभाजन करने की नीति
इस सूत्र में श्रावकों की विशाल सम्पत्ति का वर्णन करने के साथ यह भी बताया है कि वे धन
सम्पत्ति का विभाजन बड़ी कुशलतापूर्वक करते थे। धन का विभाजन करना उस समय की आदर्श
गृहस्थ नीति का एक नमूना है। उस समय का ঘলঘলি अपनी सम्पत्ति के तीन भाग करता है। जितनी
सम्पत्ति है, उसका एक तीसरा भाग ही व्यापार में लगाता है। यह नहीं कि अपनी क्षमता व सामर्थ्य
से अधिक कर्ज लेकर अंधाधुंध व्यापार करे।
इस नीति के कारण वे सदा ही निश्चिन्त और सुरक्षित रहते थे। कभी व्यापार में घाटा लग
जाये, खेती में नुकसान हो जाये तो सुरक्षित धन में से उस घाटे की पूर्ति करके व्यापार को चौपट
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