उत्तरज्झयणाणि Vol-1(1969)ac.4272 | Utterjjhynani Vol-1(1969)ac.4272

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मुनि नथमल जी का जन्म राजस्थान के झुंझुनूं जिले के टमकोर ग्राम में 1920 में हुआ उन्होने 1930 में अपनी 10वर्ष की अल्प आयु में उस समय के तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालुराम जी के कर कमलो से जैन भागवत दिक्षा ग्रहण की,उन्होने अणुव्रत,प्रेक्षाध्यान,जिवन विज्ञान आदि विषयों पर साहित्य का सर्जन किया।तेरापंथ घर्म संघ के नवमाचार्य आचार्य तुलसी के अंतरग सहयोगी के रुप में रहे एंव 1995 में उन्होने दशमाचार्य के रुप में सेवाएं दी,वे प्राकृत,संस्कृत आदि भाषाओं के पंडित के रुप में व उच्च कोटी के दार्शनिक के रुप में ख्याति अर्जित की।उनका स्वर्गवास 9 मई 2010 को राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ।

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रकाशकोय 'उत्तरफयणात्रि' ( उत्तराध्ययन सूत्र ) मूलपाठ, संस्कृत छापा, हिन्दी अतृवाद एवं टिप्पणियां सहित दो भागों में आपके हयो में है। बाचना प्रमुख लाचाएं श्री तुछसी एवं उनके हृणित योर धाकार पर सब कुछ म्योल्लावर कर देने वाएे मुतति-युद्द की यह समे कृति ागमिक कार्य-द्षेत्र में मुपान्तरकारों है । इस फथम में अतिशवोक्ति नहों, पर ष्य है । बहुली प्रवृत्तयो के केन प्राणपुञ्ज भाजापं थी तुरुतो ज्ञान-क्षितिज फे एक महान्‌ तेजस्वी रवि हैं और उतका मण्डल सी शुध नक्षत्रों का तपोपुझ्ज है। यह इस अत्यत्त श्रम-साध्य कृति से स्व फलोमूत है । गुए्देव के चरण में प्रेरा विनज्ञ सुकाव रहा--आपके तत्त्वावधान मं धामो का पम्पादन जोर अनुवाद हो--यह भारत के सांस्कृतिक अध्युदप की एक मूहावान कड़ो के रूप में चिर-अपेक्षित है। यह ध्रत्यन्त स्थाधी काये होगा, जिसका लाभ एक-दो-तीन नहीं अपितु अविन्त्य मावी पीढ़िपों को प्राप्त होता रहेगा मूते हस बात का बत्यन्त हुए है कि मेरो मनोभावता अक्षरित ही नहीं, पर फछवती झौर रसवती भी हुई है । प्रस्तुत “उत्तररयणाणि' भागम-अनुसधघान प्रन्थमाला का द्वितोय অন্য है। इससे पूर्व प्रकाशित 'दसवेआलिप' ( मल पाठ, पस्कृत- छापा, हिन्दी अनुवाद एवं ट्प्पिण पुक्तं ) को अब अनुसन्धान प्रन्थप्ताला का प्रथम उ्न्‍न्य समझता चाहिए । 'दसवेशा लिय! एक जिल्द में प्रकाशित है। उसमें टिप्पण प्रत्येक श्रध्ययत के बाद में है। 'उत्तरत्भापणाणि' में टिप्पणों की अलग जिरद द्वितीय भाग के रूप में प्रकाशित है । 'दतवैभालिय' ये पाठान्तर नही दिये गये पे । उत्तरउफपणाणि, मे पाठान्तर दे दिये गये हैं । 'दसवैज्ञालिय' की तरह ही 'उत्तरज्मग्रणाणि' में भी प्रत्येक प्रष्पयन के जारम्भ में पांडित्यपुर्ण मामुल्त दे दिया गया है, जिससे আচমন के विषय का सागोपाज़ु आभास हो जाता है। प्रत्येक क्रामुल एक अष्ययनपूर्ण निबन्ध-सा है परिशिष्ट म आपुखो मे प्रपत्त ग्रन्ध-धूषो दे दी णर्‌ है, जिससे भामुखोँ को लिने में जो परिश्रम उठाया गया है, उसका सहज ही आमास हो जाता है। घारों चरणों का पदानुक्रम भी दे दिया गया है। धारस्भ्॒ में अध्ययन-अनुक्रमणिका के साथ-साथ अध्ययन विषयानुक्रम भो दे दिया गया है, जिससे प्रत्येक एलोक बा विषय जाना जा सक्ता है । द्वितीय भाण में टिप्पण हैं । रिष्पणों के प्रस्तुत करने मे चूणि, टीकां भादि के उपयोग क साथ-साथ अनेक महस्त्वपू्ण ग्रत्यों का भी सहारा लिया गया है, जिनकी सखो द्वितीय भाग के अन्त में दे दो गई है। प्रथम परिशिष्ट में दाब्द-विमर्श भौर द्ितीय पिष्टे पाठास्तर-विमर्श समाहित हैं । इस तरह टिप्पण भाण कपूर्व अध्ययत के साथ पाठकों के सामते उपस्थित हो रहा है । प्रयृक्त प्रत्थों के मद्दर्भ सहित उद्धरण पाद-टिप्पणियों में दे दिये गये हैं, जिससे जिज्ञर पाट की तृप्ति हाथों हाथ हो जातो है भोर उसे सदम देन के रए हष टघर गोहना नहीं पडता । तेरापथ के आचार्यो के बारे मे पह कहा जाता है कि उत्होंने प्राच्नीन चूणि, टीका भादि ग्र'थों का बहिष्कार कर [दिया | वास्‍्सव में इसके पीछे तथ्य नहीं था | सत्य जहाँ भी हो वह आदरणीय है, यही तेरापथी आघार्यों की दृष्टि रही । चतुर्थ झ्राधाय जयाचार्य ने पुरानी टीकाझों का कितना उपयोग किया णा, थह उलकी मगवती जोह श्रादि रचताओ से प्रकट है। 'दसवेमालिय' तथा 'उत्ताज्मपणाणि' तो इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि तियंक्ति, भाष्य, चूणि, टीकाओं जादि का जितना उपयोग प्रथम बार बाचना प्रमुख भावयं श्री तुलो एवं उत्तके बरणों में प्रम्पादन-कार्य में लगे हुए तिक्ाय सचिब मुनि श्री तयमलओी तया उनके सष्ट्योगो साधुमौ ने क्रिया है, उतना कमी মী नधावधि प्रकादित सानुवादं ससकरण में नहीं हुआ है । सारा अनुबाद एवं लेखन-क्रार्य अभिनव कत्यता को लिए हुए हैं। मौछिक विन्त भी उनमें कम नहीं है। बहुखुततां एवं गंभीर न्वेषण प्रति पृष्ठ से कलकते £ । हम आदा करते हैं कि पाठकों को दो भागों मे प्रकाशित होते बारा यह ग्रन्थ अनेक नई ताम्प्री प्रदात करेगा और षे एते षडे हो मादर के पाच धपनायगे ।




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