राजनीतिक चिन्तन का इतिहास (1960) | Rajaneetik Chintan Ka Itihas (1960)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
43 MB
कुल पष्ठ :
483
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रॉजनौतिक चिंन्तनें का स्वभाव | [ €
भरन्त में, श्रनेक विचारकों ने राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों पर भो बहुत कुछ
चिन्तन किया है । प्रारम्भ में राज्यों का विश्वास था कि अपने धर्म तथा नस्ल के लोगों
के श्रतिरिक्त भ्रन्य किसी के प्रति हमारा कोई कर्तव्य नहीं है । जो श्रपने नहीं थे वे शत्रु
थे श्रौर उनके कोई श्रधिकार नहीं ये । श्रतः राज्यों के पारस्परिकं सम्बन्धों के नियमन
के लिये किन्हीं सिद्धान्तो की श्रावद्यकता ही नहीं थी । श्रागे चल कर जव रोमन साम्राज्य
की स्थापना हुई तो विश्व-एकता के प्रादशं श्रौर उच्चतम सत्ता के सम्राट प्रथवा पोप
में निहित होने के सिद्धान्त के कारण शताब्दियों तक पंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विषय में
किसी सुनिश्चित सिद्धान्त का प्रादुर्भाव न हो सका। फिर भी व्यापारिक कार्राइयों,
कूटनीतिक सम्बन्धों और युद्ध के विषय में धोरे-धीरे कुछ रूढ़ियाँ तथा सिद्धान्त कायम
होगये । राज्यों की स्वतंत्रता और समता, तटस्थों के भ्रधिकारों श्रौर भूमि तथा समुद्र पर
युद्ध चलाने के तरोकों के सम्बन्ध में कुछ सामान्य सिद्धान्त निश्चित कर लिये गये । और
यह स्वीकार किया जाने लगा कि राज्यों का यही सम्बन्ध भ्रच्छा है कि वे श्रनियमित
युद्ध को व्याग कर सर्वमान्य नियमों का पालन करते हुए शान्ति सै रहं । सन्धियो, राञ्य-
संघों श्रौर भ्रन्तर्सष्टीय कानून को लेकर काफी राजनोतिक चिन्तन हुश्रा; श्रौर विस्व
साम्राज्य, विश्व संघ श्रोर विश्वशान्ति के आदर्शों ने सभी युगों के उच्चतम विचारकों का
ध्यान आ्राकृष्ट किया ।
पुरातनपोषी और आलोचनात्मक राजनीतिक चिन्तन
सामान्यतया राजनीतिक चिन्तन का उहँ श्य या तो विद्यमान राजनीतिक संस्थाग्रों
झ्रौर पद्धतियों का समर्थन करना होता है, भ्रथवा उन पर श्राक्रमणा करना; इसलिये
मोटे तौर पर हम उसको दो वर्गो में विभक्त कर सक्ते है, पुरातनपोषी श्रौर श्रालोचना-
त्मके । परातनपोषी दग के सिद्धान्तं का प्रादुर्भाव तब होता है जव लोग जिस राज-
नीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत वे रहते हैं उसको उचित ठहराने और कायम रखने का
प्रयत करते हैँ । इस प्रकार के सिद्धान्तों को जन्म देने और उनका समर्थन करने वाले
के वर्ग होते हैं जिनके हाथों में राज्य की शक्ति होती है श्रौर जिनको विद्यमान राज-
व्यवस्था से लाभ होता है। वे उस मानसिक प्रवृत्ति का भी प्रतिनिधित्व करते हैं
जिसके कारण लोग कानुन तथा व्यवस्था से प्रेम करते और गड़बड़ी तथा परिवर्तन
सें धबड़ाते हैं । इस प्रकार के सिद्धान्त का सर्वोत्तम उदाहरण देवी अधिकारों का सिद्धांत
है जिसने राज्य की राजनीतिक सत्ता के साथ चर्च की धार्मिक सत्ता का संयोग
किया, कानून पर ईश्वरीय विधान की छाप लगाई श्रौर राजाग्रों के पदको पविग्र
तथा श्रनुल्लंघतीय घोषित किया । इस सिद्धान्त के श्रनुसार विद्यमान सत्ता का प्रतिरोध
करना भ्रपराध ही नहीं बल्कि पाप भीथा, इसलिये यह राज्य के श्रधिकारियों तथा
चर्च के नेताशों, दोनों के लिये भी लाभदायक सिद्ध हुआ । राजनीतिकं चिन्तन के इति-
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