सत्प्रारूपगासूत्र ग्रन्थमाला-23(1971) | Satyarupnasutra Garnthmala-23(1971)

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Satyarupnasutra Garnthmala-23(1971) by सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री - Siddhantacharya pandit kailashchandra shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ११] श्रुतावतारके उक्त कथनसे सम्बद्ध इलोक इस प्रकार ই अपनीय महाबन्धं षट्खण्डच्छेषपञ्चखण्डे तु । व्याख्याप्रज्प्ि च षष्ठं खण्डं च तत्‌ संक्षिप्य षण्णां खण्डानामिति निष्पन्नानां तथा कषायाख्य- । प्राभृतकस्य च षष्ठिसहस्वग्रन्थप्रमाणयुताम्‌ ]। व्यलिखत्‌ प्राकृतभाषारूपां सम्यकपुरातनव्याख्याम्‌। उष्टमहसम्रन्थां व्याख्यां पञ्चाधिकां महावन्धे ॥ अतः प्रोफेषर डा० हीरारालजीने षट खं. प्रथम पुस्तककी अपती प्रस्तावना जो टीकाका नम व्याख्याप्रज्ञप्ति लिखा है उक्त श्लोकोंसे वह नहीं बैठता । व्याख्याप्रज्ञप्ति प्रथम शोके आता हं । भौर तीसरे श्छोकमे प्राजृतभापारूप पुरातन व्याख्या छिखनेका निर्देश है । फिर दूसरे श्छोकमे जो कहा है- “इस प्रकार निष्पन्न हुए छ खण्डोपर' इसीका तीसरे शलोक से सम्बन्ध है । ये छं खण्ड कंसे निष्पन्न हुए ? व्याख्याप्रज्ञाप्ति नामक छठे खण्डको उनमें मिलाया । अतः व्याख्याप्रज्ञप्ति वष्पदेवकृत टीकाका नाम नहीं होना चाहिये । इसी तरहका कथन इन्द्रनन्दिते वीरसेनके सम्बन्धमें विया है । उन्होंने लिखा है--उसके पश्चात्‌ ~ ~ ৬৫ ~ कितना ही काल बीतनेपर सिद्धान्तके ज्ञाता चित्रकूटपुरवासी एला*हृएु । वीरसेन गुरने उनसे सकल सिद्धान्त- - का अध्ययन करके ऊपरके निबन्धन आदि आठ अधिकारोंकों लिखा । फिर चित्रकूट्स आकर गुरुकी अनुज्ञासे वाटग्र।मर्मे आनतेन्द्रकृत जिनालयमें ठहरकर टीका रचनेका निर्देश करते हुए लिखा है-- व्याख्याप्रज्ञप्तिमत्राप्य पूर्वषट्खण्डततस्ततास्मन्‌ । उपरितनबन्धनाद्य धिकारेरष्टादशविकल्पै: ॥ सत्कर्मनामधेयं पष्ठं खण्डं विधाय संक्षिप्य । इति षण्णां खण्डानां ग्रन्थसहस्रेह्िसप्तत्या ॥ प्राकृततसंस्कृतभाषामिश्नां टीकां विलिख्य धवत्स्याम्‌ । पहलेके छ खण्डोंमेंसे व्याख्याप्रज्ञ प्तिको प्राप्त करके फिर उसमें उपरितन निबन्धनादि अठारह अधिकारोंसे सत्कर्म वामक छठे खण्डको रचकर और उसे उनमें मिलाकर इस तरह छह छण्डोंकी बहत्तर हजार ग्रन्थप्रमाण प्राकृत-संस्कृेतभाषामिध्रित धवला नामके टीका लिखी । इसका स्पष्ट आशय यह है कि जैसे वष्पदेवने छह खण्डोंमेंसे महाबन्धकों पृथक्‌ करके शेप बचे पाँच खण्डोंमें व्याख्याप्रज्ञप्तिको मिलाकर छह खण्ड निष्पन्न किये थे और तब उनपर टीका लिखी थी। उसी तरह वीरसेन स्वामीने इन छह खण्डमिंसे व्यार्याभ्रज्ञप्तिको अजग करके उसमें सत्कर्म नामक छठे खण्डको मिलाकर निष्पक्ष हुए छह खण्डोपर धवला टीकाकौ रचना को । यह सत्कर्म पन्रहवीं पुस्तकसे शुरू होता है। उसपर एक सत्कमंपंत्तिक| भी हैं जो उसीके साथ परिशिष्ट रूपमें छपी है। उसके प्रारम्भमें पंजिकाकारने लिखा है कि महांकेमं प्रकृतिप्राभुतके चौबीस अनुयोग ह उनमें-से कृति और वेदनाका वेदना खण्डमें और स्पर्श, कर्म, प्रकृतिका वगंणा खण्डमें कथन किया हैं। बन्धन अनुयोगद्वार बन्ध, बन्धतीय, बन्धक और वन्धविधान इन चार अवान्तर अनुयोगा रोमे विभक्त , है। इनमें-से बन्च और बन्धतीय अधिकारोंकी प्ररूपणा वर्गंणा खण्डमें, बन्धन अधिकारकी प्रहूपणा खुदा- कन्व नामक दूसरे खण्डमें, और बन्धविश्वानका कथन महाबन्ध नामक छठे खण्डमें हैं। शेष १८ अनियोग द्वारोंकी प्रर्षणा मूल षट्खण्डागमपें नहीं है। किन्तु आचार्य वीरसेनने वगंणाखण्डके अन्तिम मूत्रको देशाम्‌- 7




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