बिहार में हिन्दुस्तानी | Bihar Mein Hindustani

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Bihar Mein Hindustani by चन्द्रबली पांडे - Chandrabali Panday

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) बर दिल्ली से निकल कर बाहर जाते और बसते रहे हैं। अस्तु, उद के दरबे से बाहर झाँकने के बहुत पहले ही एक मिलीजुलो हिंदुई का देश या राष्ट्रभाषा के रूप में समूचे हिंदुस्तान में प्रचार होगया था। आरंभ में अंगरेजों ने उसी को हिंदुस्तानी के पाक नाम से याद किया ओर उसी को लोकभाषा के रूप में अपनाया । बाद में प्रमाद या व्यामोहवश उद्‌ को फारसी के नाते पनपाया ओर धीरे घीरे कृटनीति के सहारे उसे आसमान पर चढ़ा दिया । अब सभी लोग उसी का दम भरने खगे । जानकारों से यह बात छिपी हुई नहीं है कि मुसलिम शासन में हिंदी फारसी के साथ साथ चलती रही ओर कंपर्नः सरकार ने एक ओर फारसी पर हाथ साफ किया तो दूसरी ओर हिंदी पर | राजभाषा की जगह अंगरेजी को दे दी तो छोकभापा की जगह उद्‌ को | भानो हिंदी भी फारसी की तरह कोई ऊपर' या बाहरी चीज थी । खेर, अभी इतना जान लीजिए कि कंपनी सरकार के सामने जब भाषा का प्रश्न आया और यह सवाल उठा कि बिहार के कलक्टर साहबों की मुहर पर कोन सी भाषा और कोन सी लिपि रहे, तब चट निश्चित हो गया कि फारसी भाषा ओर फारसी लिपि तथा हिंदुस्तानी भापा ओर नागरो लिपि | यदि विश्वास न हो तो पहली मई सन 1७०३ ई० का रेगलेशन २ सेक्शन ५ देखिए । प्रद्यक्ष है कि फारसी भाषा तथा लिपि को तो शाही जबान होने के नाते जगह मिली पर हिंदुस्तानी भाषा तथा नागरी लिपि को केवल प्रजावगंकी प्ररणा से स्थान




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