इतिहास साक्षी है | Itihaas Sakshi Hai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नारीका पहला दर्शन १३ अञ्चलमें ऋष्यण्युङ्ख उस दष्िपिथमें साकार हो उठता हँ । पिताके तपो- बनमें जन्मसे रहते हुए, नगर-गाँवके प्रभावसे दूर, उस युवा-बालकने साधारण मंसारकी वृत्ति नहीं जानो है। उसने नतरकके द्वारस्वरूप नारीका स्पर्श तो क्या उसका मुख भौ नहीं देखा और यदि प्ृथ्वीपर कोई ऐसा है जो तुम्हारे पृत्रेष्टिका उचित ऋत्विज हो सकता है तो बस वहीं आूंगी ऋषि है । पर जब ऋषिकी स्थिति ऐसी थी कि उसने अपनी युवावस्था तक तारीके दर्शन तक नहीं किये थे तब भला राजधानीमें उसके आनेकी सम्भा- बना ही कहाँ थी ? और गुरुने कहा भी कि कठिताई श्यगोको वहति राजधातीमे छानेकी ही हैं; क्योंकि उसने कभी अवतक आश्रमसे बाहर पग नहीं डाले हैं और उसके पिता तपोधन ऋषिवर उसपर और आश्रममें आनेवाले महधियोंपर सदा वरुणकी-सी दृष्टि रखते हैं। उस तपोवनमें जाते पापकी काया काँपती है, सभी जीव-जन्तु वह जाते अपना जौद्‌धत्य ओर ईहा आश्वमके वाहर्‌ छोड जाति हँ । कैसे कार्थं सपेगा, यह कहना कठिन हैं। हाँ, एक ही चीजहे, जो श्ुंगीको इधर ला सकती है--ल्पका मोहं । पर रूपका मोह तो उसे है नहीं, रूप उसने देखा ही नहीं । फिर भी यदि किसी प्रकार तारी उसके यम-नियमको तोड़ सके तो मम्भवतः हमारा इष्ट सथे । अर्थात्‌, पुण्यकों पापकी छायासे होकर निक- लगा होगा, पुण्यपर पाप द्वारा क्षण भर ग्रहण छगाना होगा, तभी अयोध्या- की गद्दी राजन्वती हो सकेगी । किन्तु आगे यह बात सोच में काँप उठता हूँ क्योंकि पापकी उत्तेजना अपने उपक्रमसे वाहर है | अब तक मैंने धर्म और मोक्ष' ही साधा है, यह काम' कोई और ही साथे । महषिक्री वात राजाकी समन्नमे आयी ! मर्हपि राजसभासे उठकर चले गये, राजाने मन्वरियोकी ओर देखा । एकने सज्ञाया, वारवनिताएं यदि वहाँ भेजी जायेँ और जो वे अपने सारे हाव-भाव, अपनी समूची चेष्ठाएँ,




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