अजनबी | Ajnabi

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Ajnabi by सूर्य कुमार जोशी - Surya Kumar Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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বন্ধ सुबह बफ्तर चला जाता श्रौर सहदेव दिन-भर श्रकेला रह्‌ जाता । वह लेटे-लेटे एमली जोला के उपन्यास और मोपासां की कहा- नियाँ पढ़ता रहता । गोमती भी उसी फ़्लैट मेँ थी परन्तु ग्रब वह भ्रधिकतर अपने कमरे में ही सीमित रहती थी । सहदेव में साहित्य के प्रति फिर रुचि जागी थी और वह एक महानू खेखक बनने के सपने फिर देखने लगा था । उसने श्रपन्ती चिरपरिचित्त डायरी, जो पीले कागजों की एक जिल्दबेंधी कापी थी, श्रपत्री श्रटैची में से निकाल ली थी श्रौर उसे उलट-पुलटकर देखना शुरू कर दिया था। वह्‌ कापी जिसे कभी वह 'डायरी' कभी जनल कभी 'नोद्स' कभी श्रात्मकेथा' या दतिहास के पन्ते कहा करता था, उसकी पुरानी साथिन शी । वेह उसमें पिछले दो-तीन वर्षों से श्रपले मन की तमाम गन्दगी और अच्छाई उंड्ेलता श्राया था भ्रौर- एक माने में वह उसकी नित्यप्रति बदलती मानसिक स्थिति की नंगी तस्वीर थी, यद्यपि उसका हर पन्ना जीवन के निस्सार, निरर्थक क्षणो को स्थायी मूल्य देने के असंभव उद्देश्य से लिखा गया था । सहदेव को कालेज की पढ़ाई के दौरान ही महसूस होने लगा था कि बह कोई मामूली श्रादमी नहीं । उसे भी दुतिया में कोई बहुत बड़ा पार्ट গলা करना था | वह समझ न पाता था कि क्‍यों शोहरत की भूख अ्रच्छी नहीं समझी जाती। उसने कहीं ठीक ही पढ़ा था कि बड़े-बड़े काम करने वालों को वामवरी हासिल करने की र्वाहिश का मजाक नहीं झड़ने देवा चाहिए । वह तो चाहता था कि दुनिया की सजरें हमेशा उसी रे




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