कन्या और ब्रह्मचर्य | Kanya Aur Brahamcharay

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Kanya Aur Brahamcharay by आत्मानन्द - Aatmanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४५, देवी--अपने शरीर को रचना को देखकर, उसौ प्रकारके गुण तथा स्वभाववाद्या ओर नपी तुलो मात्रा मे किया हुआ भोजन हो उचित भोजन कहलाबड़ा है । छन्न के गुणो तथा दोषों को जानने के लिए श्रत्येक देवी को आयुर्वेद का द्रव्य गुण प्रकरण अवदय पढ़ वेना चाहिए । उनका यह्‌ स्वाघ्याव उनके धपते शरीर को पुष्टि के लिए तो काम देगा हो, इसके साथ हो बह उनको सन्‍्तान के पालन पोयरा में भी उनका विशेष सहायक होगा । अन्न को नपो तुलो मात्रा यह है कि भोजन के बाद पेट का चौथा भाग अन्न से अवश्य स्लालो रहे जिससे कि प्राण के आने जाने घोर काम करने के लिये कठिनाई म हो | जिस भोजन मैं बहुत चरपरे, कसले, गरम, जट , अधिक्‌ नमक थाले, भारी तथा मल को बांधने वाले पदार्थ न हों, उसे सात्विक कहते हैं । विमला-ब्रह्मचयं से जो शक्ति त्राप्त होती है वह क्‍या है? बहु शरीरो बलवान्‌ तथ सुडोल कंसे बनाती है ? देवी--हम जो अन्न खामा करती हैं, उसके स्थुल भाव को तो मल ओर मूत्र के रूप में हमारा शरीर बाहर फेंक देता है। जो उसका सार रहता हैं उसके क्रम से, रस, रक्त, मांस, मेद, हड्डी ओर मत्जा बनते हैं। सब भागों के सूक्म तथा शक्तिशाली भाग का वोयं बनता है । इसे ही शरीर की छाक्ति कहते हैं। हमारे करीर में जितने काय्यं हो रहे हैं उन सब में उसका हाथ है। पह ही मेदे को दक्ति देता है। इसी की सहायता से जिगर रक्त को बनाता है| यह ही हृदय तथा फेफड़े के रक्त की शुद्धि में सहायक बनता है । ओर इसी को सहायता से प्राण रक्त को शरीर में फलाता हुआ माँव आदि धातुओं के रूप में बदल कर शरोर का ग्रग बन'ता




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