क्रमबद्ध-पर्याय-समीक्षा | Krambadh Paryay Samiksha

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Krambadh Paryay Samiksha by कोठारी मोतीचंद जैन - Kothari Motichand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ ) अनेकार्थता भी ब्यक्त कर रहे हैं। देखिये- “ क्रमबद्धमें पर्यायके क्रमकी ही सूचना है और क्रमनियमितमें वह पर्याय केवल क्रम- बद्ध ही नहीं, कितु जिन जिन कारणोंके संदर्भ;में वह पर्याय है, वे सब कारण तथा उनका यथासमय संयोग भी नियमित (? ) है, यह स्पष्ट होता है । ” इससे स्पष्ट होता है कि क्रमबद्ध शब्द कारणसूचकं नहीं है और क्रमनियमित शब्द कारणसूचक है यह स्पष्ट होनेपर भी दोनों शब्दोंकी एकार्थता माननेवालोंकी पक्षां- धता व्यक्त नहीं होती क्‍या ? विभावभावादिरूप पर्यायोंका क्रम अवदय नियमित है, कितु नियामक कमं है । वें अपने' आप नियतक्रमवाली नहीं होती है । अर्थेपर्यायें क्रवर्तिनी होती हैं। उनका सहकारिकारण वर्ते- नालक्षणवाला काल होता है! आत्माकी परिवतेनशीरता और वरतंनालक्षण कालकी सर्वेत्र स्थिति होनेसे अर्थपर्यायें एकके बाद एक इस ऋमसे सववेदा उत्पन्न होती रहती हैं। एकसाथ एक द्रव्यकी दो पर्यायें उत्पन्न नहीं हो सकती । एक द्रव्यके अनेक गूणोंकी अनेक पर्यायें एकसाथ होती हैं । गुण और गृणीमें कर्थ॑- चित्‌ अभेद होनेसे एक द्रव्यकी एकसाथ अनेक पर्यायें होती हैं ऐसा कहनेमें विरोध नहीं है। एक गुणकी भी एकसाथ दो पर्यायें नहीं होती। पर्याय चाहे द्रव्यकी हो चाहे गुणकी हो वह सहकारि- कारणकी सहकारितामें ही उत्पन्न होती है, उसके अभावमें नहीं । कोई कहते हैं कि ' जब सब कुछ क्रमबद्ध है तब पुरुषार्थे भी तो उसीके गर्भ में समाहित है । पर्यायें तो पुद्गल की भी होती हैं । एक लोहेका टुकंडा अनेक वर्ष वीत जानेपर पुरुषार्थके अभाव में भी कालद्रव्यकी सहकारितामें इंद्रियगोचर हो सकने-- वाली पर्यायके रूपसे परिणत हो जाता है। लोहेका यह वतेना«




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