पगडंडी और परछाइयां | Pagdandi Aur Parchaiyan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
160
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ख पगडंडी श्रौर परछाइयाँ
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आपको उसके प्यार से छुड़ा सकता, मगर भ्रब......
आँसुओं से छलकती आँखों से उसने अपने चारों तरफ़ देखा । फिर
एक गहरी साँस लेकर उसने अपना आप ढीला छोड़ दिया--जैसे उसकी
सारी शक्ति उसके शरीर से निकल गई हो ।
मेरा क्रोध बढ़ता गया--“तुम पागल हो गए हो ! पागल और सूर्खे
भी । वह कुलठा थी और भ्रब वह मर चुकी है । ठीक ही तो है, तुम्हारा
छुटकारा हो गया है--छुटकारा ! जरा सोचो, अगर वह जिन्दा होती तो
तुम्हारा जीवन नरक बना देती । मगर अब ? अब तुम अपना जीवन
फिर से आरम्भ कर सकते हो । तुम जवान हो, तुम फिर शादी कर
सकते हो और...”
“हाँ, हाँ, हाँ !” वहु बोल उठा । “हाँ-हाँ, में शादी कर सकता हूं,
म फिर शादी कर सकता ह... श्रौर एकाएक वहु जोर से हंसने लगा ।
उसकी भअ्रस्वाभाविक हँसी इस तरह गूंज उठी जेसे खंडहर में उल्लू की
बोली । अपनी पूरी शक्ति से वह हँसता गया, और जैसे-जैसे वह हँसता
गया मेरी बेचैनी बढ़ती गई । मेने उसे भमोडकर चुप कराने की कोशिश
की । मगर जब उसकी हँसी शांत हुई तो वह मेरे कंधे पर सिर रखकर
फूट पड़ा । वह ऐसे रोने लगा जैसे जंगल में खोया हुआ बच्चा, जो अपने
घर वापस जाना चाहता है !
बहुत देर तक में उस शोक-भरी निस्तब्धता में इन्तजार करता रहा
और जब उसका आवेश कम हुआ्ना, तो एकाएक बाहर के दरवाज़े को
किसी ने खटखटाया--धीरे-से, हिचकिचाहट के साथ, जैसे खटखटाने
वाला डर रहा हो। में दरवाजा खोलने के लिए उठा, मगर राकेश ने
मुझे रोक दिया। शांत स्वर में बोला--“तुम यहीं रहो। में जाकर
देखता हूँ, कौन है ।”
यद्यपि उसके पेर लड़खड़ा रहे थे, फिर भी मैने उसे जाने दिया ।
वह दुख के आघात से संभल रहा था और उसका मन दूसरी तरफ़
लगाने के लिए कोई भी काम ठीक था। सिर्फ़ एक डर था--कहीं यह
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