पगडंडी और परछाइयां | Pagdandi Aur Parchaiyan

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Pagdandi Aur Parchaiyan by कुलभूषण - Kulabhushan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ख पगडंडी श्रौर परछाइयाँ 117 आपको उसके प्यार से छुड़ा सकता, मगर भ्रब...... आँसुओं से छलकती आँखों से उसने अपने चारों तरफ़ देखा । फिर एक गहरी साँस लेकर उसने अपना आप ढीला छोड़ दिया--जैसे उसकी सारी शक्ति उसके शरीर से निकल गई हो । मेरा क्रोध बढ़ता गया--“तुम पागल हो गए हो ! पागल और सूर्खे भी । वह कुलठा थी और भ्रब वह मर चुकी है । ठीक ही तो है, तुम्हारा छुटकारा हो गया है--छुटकारा ! जरा सोचो, अगर वह जिन्दा होती तो तुम्हारा जीवन नरक बना देती । मगर अब ? अब तुम अपना जीवन फिर से आरम्भ कर सकते हो । तुम जवान हो, तुम फिर शादी कर सकते हो और...” “हाँ, हाँ, हाँ !” वहु बोल उठा । “हाँ-हाँ, में शादी कर सकता हूं, म फिर शादी कर सकता ह... श्रौर एकाएक वहु जोर से हंसने लगा । उसकी भअ्रस्वाभाविक हँसी इस तरह गूंज उठी जेसे खंडहर में उल्लू की बोली । अपनी पूरी शक्ति से वह हँसता गया, और जैसे-जैसे वह हँसता गया मेरी बेचैनी बढ़ती गई । मेने उसे भमोडकर चुप कराने की कोशिश की । मगर जब उसकी हँसी शांत हुई तो वह मेरे कंधे पर सिर रखकर फूट पड़ा । वह ऐसे रोने लगा जैसे जंगल में खोया हुआ बच्चा, जो अपने घर वापस जाना चाहता है ! बहुत देर तक में उस शोक-भरी निस्तब्धता में इन्तजार करता रहा और जब उसका आवेश कम हुआ्ना, तो एकाएक बाहर के दरवाज़े को किसी ने खटखटाया--धीरे-से, हिचकिचाहट के साथ, जैसे खटखटाने वाला डर रहा हो। में दरवाजा खोलने के लिए उठा, मगर राकेश ने मुझे रोक दिया। शांत स्वर में बोला--“तुम यहीं रहो। में जाकर देखता हूँ, कौन है ।” यद्यपि उसके पेर लड़खड़ा रहे थे, फिर भी मैने उसे जाने दिया । वह दुख के आघात से संभल रहा था और उसका मन दूसरी तरफ़ लगाने के लिए कोई भी काम ठीक था। सिर्फ़ एक डर था--कहीं यह




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