वैदिक भाषानुशीलन | Vaidik Bhashanushilan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
176
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ९२ )
की उपलब्धि के द्वारा सृष्टि के प्रवाह में मी महर्षि ने अमृत का अनुमव किया
है, जिसका परिचय इस प्रकार प्राप्त हो रहा हैः -
गुण्वस्तु विश्वे श्रमृतस्य पुत्राः । (ऋ. १० १३। १ )
जीवन को अमृत बनाने वाले महर्षि को प्रकृति की विभिन्न स्थितियों में भी
अमृत का अनुभव हुआ है--
प्रमृतं वे आप: । ( ते. श्रार. १ २६ )
एतद् वै हविः भ्रमृतं यदम्निना पचन्ति । ( शत. ६।२। १९)
अमृत निश्चित रूप से जल है| यह हवि निःसन्देह अम्रत है, जिसे अग्नि से
पकाते है। इस अम्ृत-तत््व का परिचय अनेक रूपों में ऋषि ने दिया है । उदा-
द्रण के लिए कुछु दृश्य दशनीय हैं
उध्वं मूलो श्रवाक् शाखः, एष श्ररवत्थः सनातनः
तद् एव शुक्त, तद् ब्रह्म. तद् एव श्रमृतम् उच्यते|
ऊपर जिसका मूल है, नीचे जिसकी शाखायें हैं। ऐसा यह अनादि संसार
रूपी पीपल का बद् है। इसका जो मूल है; वही निश्चय रूप से शुक्र है, वही
ब्रह्म है और वही निस्संदेह अमृत कहा जाता है। मनुष्य के हृदय के जब्र वास-
नामय बन्धन विच्छिन्न हो जाते हैं, तर वह अमृत हो जाता है; --
यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्य इह ग्रस्थयः |
प्रथ मर्त्योऽमृतो भवति-
मनुष्य की अम्ृतत्व-प्राप्ति का साधन आत्मतत्वोपलब्धि ही है, इसका परिचय
देते हुए ऋषि ने कहा है
यस्मिन् द्यौः पृथिवी च श्रन्तरिक्नम् श्रोतं मनः सह् प्रणैः च स्व ।
तम् एव एक जानथ श्रात्मानम्. भ्रन्याः वाचो विसुच्वथ, रमृतस्य एष सेठ; ।
जिसके भीतर द्योलोक; प्रभ्वी, श्रन्तरित्त तथा इन्द्रियों के साथ मन गुँथा
हुआ है, उसी एक आत्मा को जानना चाहिए, अन्य बातें छोड़ देनी चाहिए |
क्योकि यह आत्मा ही अमृतमय जीवन-प्रापि का सेतु है। ब्रह्म-माव को अनेक
मंत्रों के द्वारा अमृत-रूप में महर्षि ने दिखाया है। यह ब्रह्म रूप अमृत चारों
ओर व्यात्त है ;--
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