विषाद - मठ | Vishad Math
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
270
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विषादं सर १९१
चढ़े हुए दामों पर बिकेगी, किन्तु जब औरों के घर भाव की गंध उठती,
ये तीनों निराश-से एक दूसरे की सूरतें देखते ओर इन्दु को देखकर वृद्ध
की थाँखों में कभी-कर्भा पानी आ जाया जिसे छिपाने के लिए बह मुंह
फेर छवा । वसंत मानो अपनी बीमारी के हफ्ते अपनी पसललछियों पर हाथ
गकर यिन सकता था ¦
बूदे का नारियछ मंदा हो चला था । आखिरी दो-चार क़श खीच
कर खाँसते हुए उसने अपनी चिझुम आधा दी और अपने-आप बड़बड़ा
बठा--बेटा, सोया नहीं ? .
कसं हष पड़ा ¦ सानो ककार की अपराजितं आसा पुर उठी ।
सोया कब्र था में, वावा । नीद ही नहीं आती जो । घुटनों का दहै!
आह | चेन नहीं मालूम देता । कभी कमर, कभी सिर. .-केसा चरछता
द्रद ই অই? तुम भी नहीं सोये अभी | में जो कमबखत रात-दिन यहाँ
खाँ-खूँ किया करता हूँ, कोई मातुस सो सक्केगा कया, इसमें ?
'छुछ नहीं, में ठो नारियछ पी रहा था। पेट में कुछ खलबली-सी
पड़ गहे थी । यद् भी तो एक चुरी आदत हयी है ।
वस्त ने कहा-अाका ! मेया होते तो तुम कु देर सो वो सकते)
मैं तो अब ठीक नहीं हो सकता । तुम कं व्यर्थ मुझ पर पैसा तोड़
रहे हो ९
'छि:--छि? बूढ़े ने कह्दा--असगुत्र की वात न छेड़ा कर तू यों ही ।
बात-कुबात का ध्यान नहीं करता । अब क्या तू कोई बच्चा हे !
बसंत चुप हो रहा । |
बूढ़े की आँखों के आगे अनेक चित्र खेलने छुगे । उसे घीरे-घीरे फिर
यादं आने छगा | वसंत का बड़ा भाई शिशिर उसके जीवन की बागडोर
था ! कितने प्यार से पाछा था उसे। आज्ञ वह ही दरद गदतो इस
टट्टू, का क्या, चाहे जिधर झड़ जाय | चछा गया बह निरमोही, इस बूढ़े
को छोड़कर चछा गया ।
बूढ़े की अंतरात्मा पर वज्ञ का-सा प्रहार होने छूमा ।
उसकी माँ ने उसके लिए क्या न किया किन्तु वद्द तो लच्छी हैं
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