विषाद - मठ | Vishad Math

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Vishad Math by रागेय राघव - Ragey Raghav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विषादं सर १९१ चढ़े हुए दामों पर बिकेगी, किन्तु जब औरों के घर भाव की गंध उठती, ये तीनों निराश-से एक दूसरे की सूरतें देखते ओर इन्दु को देखकर वृद्ध की थाँखों में कभी-कर्भा पानी आ जाया जिसे छिपाने के लिए बह मुंह फेर छवा । वसंत मानो अपनी बीमारी के हफ्ते अपनी पसललछियों पर हाथ गकर यिन सकता था ¦ बूदे का नारियछ मंदा हो चला था । आखिरी दो-चार क़श खीच कर खाँसते हुए उसने अपनी चिझुम आधा दी और अपने-आप बड़बड़ा बठा--बेटा, सोया नहीं ? . कसं हष पड़ा ¦ सानो ककार की अपराजितं आसा पुर उठी । सोया कब्र था में, वावा । नीद ही नहीं आती जो । घुटनों का दहै! आह | चेन नहीं मालूम देता । कभी कमर, कभी सिर. .-केसा चरछता द्रद ই অই? तुम भी नहीं सोये अभी | में जो कमबखत रात-दिन यहाँ खाँ-खूँ किया करता हूँ, कोई मातुस सो सक्केगा कया, इसमें ? 'छुछ नहीं, में ठो नारियछ पी रहा था। पेट में कुछ खलबली-सी पड़ गहे थी । यद्‌ भी तो एक चुरी आदत हयी है । वस्त ने कहा-अाका ! मेया होते तो तुम कु देर सो वो सकते) मैं तो अब ठीक नहीं हो सकता । तुम कं व्यर्थ मुझ पर पैसा तोड़ रहे हो ९ 'छि:--छि? बूढ़े ने कह्दा--असगुत्र की वात न छेड़ा कर तू यों ही । बात-कुबात का ध्यान नहीं करता । अब क्या तू कोई बच्चा हे ! बसंत चुप हो रहा । | बूढ़े की आँखों के आगे अनेक चित्र खेलने छुगे । उसे घीरे-घीरे फिर यादं आने छगा | वसंत का बड़ा भाई शिशिर उसके जीवन की बागडोर था ! कितने प्यार से पाछा था उसे। आज्ञ वह ही दरद गदतो इस टट्टू, का क्‍या, चाहे जिधर झड़ जाय | चछा गया बह निरमोही, इस बूढ़े को छोड़कर चछा गया । बूढ़े की अंतरात्मा पर वज्ञ का-सा प्रहार होने छूमा । उसकी माँ ने उसके लिए क्‍या न किया किन्तु वद्द तो लच्छी हैं




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