होटल का कमरा | Hotel Ka Kamara

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Book Image : होटल का कमरा  - Hotel Ka Kamara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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-१६: होटल का कमरा मेरी आवश्यकता और अवसर के अनुसार बदलती रहती है । तो क्‍या मैं : केवछ उपभोग के लिए बनाया गया हूँ ? मनुष्य की सारी दुबंछताओं का भार अपने कम्पित वक्ष पर लछादे हुए इस तरह कब तक मैं चलता रहूँगा, इसका कोई ठिकाना नहीं, कोई निश्चय नहीं । हत्याएँ मेरे सामने होती हैं, ज़हर के प्याले मेरे सामने पिलाये जाते हैँ । छज्जाहरण की मैं कमाई खाता हूँ । फिर भी कभी मूँह नहीं खोल सकता । मेरे चिरस्थिर अस्तित्व और चल्लुद्रष्टा व्यक्तित्व की यह कैसी विडम्बना है ! गहन अन्धकारसे भरे, कदम और कलुष के वच्र, कठोर हाथों से, एक सम्यताभिमानी मोहाक्रान्त मानव को, जब मैं वन्य-पशु की भाँति व्यवहार करता देखता हैँ, तब चुपचाप यही सोचता रह जाता हूँ कि प्रभू, तेरी लीला भ्रपरम्पार . है। यह कितना अच्छा हुआ, जो तूने मुझे जड़ बनाया । यदि कहीं चेतन बनाया होता, तो ऐसे नारकीय हृश्यों को देखने से पहले अपने मनुष्यत्व के गौरव के नाम पर, यातो ये आँखें ही फोड़ लेता, या मेरा हृदय ही अपने-आप फट जाता । म 7 ই লস




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