खरतरगगच्छ बृहद्गुर्वावलि | Kharatara Gaccha Brihad Gurvavali
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
144
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)खरतर बृहद्श॒ुवावलि- प्रास्ताविक वक्तन्य ५
केवर वदाके विद्वानोंका उत्साह और एकाग्रमाव विभेप अनुकरणीय मालम हुआ। हमें जो खास अध्ययन करनेके विशेष विचार मालम दिये, वे
बहांके समाजवाद-विपयक थे । इन विचारोंका अध्ययन करते हुए हमारी जीवनाभ्यन्त जो सशोधन-रचि है, वह शियिल हो चठी । समाज-
जीवनके साय सम्बन्ध रखने वाली बातोंने मस्तिष्कमें अड्ठा जमाना शुरू किया । इन वाताका विशिष्ट अध्ययन करनेके लिये हमारी इच्छा वहां
पर कुछ अधिक काल तक ठद्दरनेकी थी, लेकिन सयोगवर्ण हमको जल्दी ही भारत लौट आना पडा 1 उधर आने पर नाह्वारजीने इस सम्रहकी
सर्वप्रथम ही याद दिलाई, लेकिन सलवाग्रहके नूतन युद्धमें जुड जानेके कारण और फिर जेलखाने जैसे एकान्तवासके विलक्षण अनुभवानन्दर्मे
निम्र हो जानक कारण उन, पुरानी वार्तोकरा स्मरण करना मी कव सच्छा लगता था । एक तो यों ही मस्तिष्कसे समाज-जीवनके विचारोंका
आन्दोलन घुडदीड़ कर रहा था, और उसमें फिर भारतवी इस नृतन राष्ट्रकान्तिके आदोलनने सहचार किया । ऐसी स्थितिमें हमारे जैसे
नित्य परिवत्तेनशील प्रकृति वाले और क्रान्तिमं ही जीवनका विकाश अनुभव करने वाले मनुष्यके मनमें, वर्षों तक पुराने विचारोंका सग्रह कर
रखना, जीर फिर जब चाहें तव उन्हें अपने सम्मुख एकदम उपस्थित हो जानेकी आदत बनाये रखना दु साध्य सा है ।
जेलमुक्ति होने पर विधाता हमें शान्तिनिकेतन खींच लाया। विश्वभारतीके न्ञानमय वातावरणने हमारे मनको फिर ज्ञानोपासनाकी तरफ
खींचना झुछ किया और हमारी जो खाभाविक सशोधन-रूचि थी, उसको फिर सतेज वनाया। वर्षासे हमने २1४ ऐतिहासिक प्रन्थोके सम्पाटन
रीर उशोधनका सकलप कर रखा था और उसका कुछ काम द्वो भी चुका या, इसलिये रह-रह कर यह तो मनमें आया ही करता था कि यदि
इस संकल्पके पूरा करनेंका कोई मन पूत साधन सम्पन्न हो जाय, तो एक बार इसको पूरा कर लेना अच्छा है।बावू श्री बहादुरसिंदजी सिंघीके
उत्साह, औदार्य, सीजन्य और सींहार्दने हमारे इस सकत्पकी एकदम मूर्तिमन््त वना दिया और हम जो सोचते थे, उससे मी कहीं अधिक मन पूत
साधनख समपि देख फर्, परिणामे दमने सिंघी जैन श्रनपीठ भर सिंघी जेन अ्नन्थमाला का कार्यभार उठाना खीकार कर लिया |
जबसे हम यद्दा आये, तभीसे इस समग्रहके लिये श्री नाहारजीका वरावर स्मरण दिलाना चाद रहा। हम भी आज लिखते है, कछ
लिखते हैं, ऐसा जवाब दे कर उन्हें आगा दिलाते रहते थे । वहुत समय बीत जानेके कारण इस विपयमें जो कुछ हमारे पुराने विचार थे
और जो कुछ हमने छिखना सोचा था, वह स्घति-पट परसे अस्पष्ट सा हो गया । जिन ग्रतियों परसे यह समह मुद्रित हुआ था, वे मी पासमे
नहीं रदनेसे, इस विपयमें क्या लिखें, कुछ सूझ नहीं पहती थी । “विश्नप्ति त्रिवेणि', 'हपारस कोप', 'शब्रनुंजय तीर्थेद्धार प्रबन्ध” इत्यादि पुस्तकोंके
सपादनके वाद हमारा हिन्दी-लेखन प्राय बन्द-सा ही है | पिछले कई वर्षासे निरन्तर गुजराती भाषा ही में चिन्तन, मनन, लेखन, और
वाग्व्यवहार चलते रहनेसे हिन्दी-मायाका एक तरदसे परिचय ही छूट गया । इस कारणसे कुछ हिन्दी लिखनेका ठीक ठीक चित्तेकाम्य न हो
पाता था । लेकिन पिउले कुछ दिनोमें हमारा साहिल-सग्रह इमारे पास पहुच गया और वर्षांसे सदूकोंमें बद पदे हुए पुराने कागजों ओर
टिप्पणोंकों उथल पुथछ करते समय, इस विषयके कुछ साधन भी हाथमें आ गये, जिससे ये पंक्तिया लिखनेका मनमें कुछ विचार दो आया ।
चस यदी इस सम्रहके वारेमें हमारा किख्वित् वक्तव्य हू । +
শত
पैताम्तर जैन सघ जिस स्वरूपमें आज विद्यमान है, उस खर्पके निर्माणमें, खतरतर गच्छके জালাখী, यति और श्रावक-समूहका
बहुत चढ़ा हिस्सा है। एक तपागच्छको छोड़ कर दूसरा और कोई यरछ इसके गौरवकी बरावरी नहीं कर सकता । कई वाततोंमें तपागच्छसे भी
इस गच्छका प्रभाव विशेष गौरवान्वित है । भारतके प्राचीन गौरवको अक्ष॒ण्ण रखने वाली राजपूतानेकी वीर भूमिका, पिछले एक हजार वर्षका
इतिहास, ओसवाल जातिके शोये, औदार्य, वुद्धिनवाठ्॒य और वाणिज्य-व्यवसाय-कीशल आदि मदद गुणोसे प्रदीक्त है और उन गणो जो
विकाश दख जारि, ईस प्रकार हुआ है, वह मुख्यतया खरतरगच्छके प्रमावान्त्रित मूल पुरुषषोंके सदुपंढेश तथा शुभाशीवादुका फल है। इसलिये
खर्तरगच्छका उज्वल इतिद्वास यह केवल जैन सघके इतिद्ासका ही एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण नहीं है, वनिक समग्र राजपूतानेके इतिहासका एक
विशिष्ट प्रकरण हैं | इस इतिहासके सकलनमें सद्दायभूत होने वाली विपुल साधन-सामग्री इधर-उधर नष्ट द्वो रही है । जिस तरहकी पद्मावलिया
इस सप्रदमें सगहीत हुई हैं, वैसी कई पद्चावलियां और प्रशस्तिया सगहीत की जा सकती हैं गोर उनसे विस्तृत और श्रवलावद्ध इतिहास तैयार
किया जा सकता है । यदि समय अनुकूल रद्या, तो सिंधी जैन प्रथमाला' में एक-आघ ऐसा बडा सप्रह जिज्ञासुओंकी भविष्यमें देखनेक्ों मिठेगा।
बाबू श्री पूरणचदजी चाहारने वड़ा परिश्रम और बहुत द्रव्य व्यय करके जैसलमेरके जैन शिलाडेखोंका एक अपूर्व सम्रह प्रकाशित कर
इस विषयमें विद्वानों और जिज्ञासुओंके सम्मुख एक सुन्दर आदर्श उपस्थित कर दिया है। इसके अवल्ोकनसे, राजपूतानेके जूने पुराने
स्थानोंमें जैनोंके गौरवके कितने स्मारक-स्वम बने हुए हैँ तथा उनसे मारे देशक ज्वलन्त इविदासकी कितनी विश्ञाल-समृद्धि प्राप्त हो
सकती है उसकी कुछ कल्पना आ सकती है । इस अथमें प्राय खरतरगच्छके ही इतिद्वासकी बहुत सामग्री सगृहीत है जो इस पद्मवलिवाले
सप्रहकी वातोंकोी पुष्टि करती है तथा कदे वातकी पूर्ति करती है । इन सब वातोंके दिग्दशनकी यह जगह नहीं है । ऐसे सप्रहोंके संकलन
करनेमें कितना परिश्रम आवश्यक है वह इस विपय॒का विद्वान् ही जान सकता है “विद्वानेव जानाति विद्वजनपरिश्रम ? ।
जैंसलमेरके लेखोंका ऐसा सुन्दर सप्रह प्रकाशित कर तथा इस पद्चावली सम्रहको भी प्रकट करवा कर श्रीमान्. नाहारजीने खरतरगच्छकी
अनमोल सेवा की है 1एतदर्थ आप अनेक धन्यवादके पात्र हैँ। आपका इस प्रकार जो जनेदपूणं अलुरोष दमत न होता तो यद सम्रह यों ही नष्ट हो
जाता और इसके तैयार करनेमें जो कुछ इमने परिश्रम किया था वह अकारण ही निप्फल जाता। अत हम सी विशेष रूपसे आपके कृतन हैं ।
सिंघी जैन पीठ |
शान्तिनिकेदन ॥ | मुनिजिनविज य॒
पर्युपणा प्रथम दिन, स १६८७
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