राजनीती शास्त्र | Rajniti Shastra Bhag 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विधि ४३७ जमनताके सर्वोच्च नैतिक हितोंके अनुकूल होती हैँ, और दूसरी ओर उन विधियोकों रहू करता चछता हैं जो जनताके लिए अहितकर हो गयी हो । विधि और नैतिकता का इतना गहरा सम्बन्ध है कि अक्सर अवेधिक और अनैतिक में अन्तर करना मुश्किल हो जाता हैँ । क्योकि प्राय जो अवेधिक है वह अनेतिक भी है और जो वेबिक तोर पर ठोक हूँ वह वैतिक मी है! विन्‍्तु जो आज र्ग रकानूती हैं वह कल नैतिक हो सदता है और इसलिए तब विधिको बदलनेकी आवश्यकता पड़ेगी অন্যথা मैनिकताका महित हो सकता ह ? हर हालतमें इस बातका ঘ্যান হেলা ন্নাতিহ कि राज्य स्वयं साथ्य नहीं है। साध्य तो मनुष्य के व्यक्तित्व की समृद्धि हैं। राज्य सो अमलौ उदेश्य तकः पहुचनेका यानी मनुष्य के व्यदितित्व कौ समृद्ध का एक सायन मात्र हूँ । विधि और राज्य (1.8७ बण्त 5091९) कोकर के अनुसार, राज्यकी सत्ताको सोमित करनेके अनेक प्रयत्न, तीन दृष्डिकोणोंसे किये गये हू । प्रथम तो यह कि व्यबित की कुछ जीवनचर्या ऐसी भी होती हूँ शिसमे राज्य का दखलछ अनुचित होगा । अपने इस कार्यक्षेत्र को वह अपनी और अपने समाजकी प्रद्नेति और प्रवृत्तिके अनुसार और सत्‌-असत्‌के सार्वकोकिक या निविवाद सिद्धान्तो के ऊपर आधारित करना चाहता हैं । इस दृष्टिकोणको राजतीतिशास्त्र में आमतोर पर व्यक्तिवाद कहा जाता हैँ और इसके साथ प्राहृतिश अधिकारों और विवेककी स्वाधीनता जैसे सहगामी विचार जुड़ें रहते हूं; । राज्यके अन्दर बहुतसे सामाजिक और आधिक संघ होते हैँ जो स्थायी हूपसे त्ियायील रहते है । कुछ लेखकोक्य मत है कि इनको पूर्ण आन्तरिक स्वतत्रता होनी चाहिए। राज्मको इनके कार्योर्मे किसी प्रदारका भी हस्तक्षेप नही करना चाहिए। क्योकि राज्य सघोका संघ ही तो है । बह दूसरा दृष्टिकोण है जो राज्यकी सत्ताकों सीमित कर देना चाहता है । इसको वहुलवाद (ए़ोणशंता) कहते है कुछ विचारक विधिके दृष्टिकोणसे ही राश्यके ऊपर एक तीसरे प्रकारका प्त्तिवन्ध लगाना चाहते हूं । इत विचारकों का वहना हूँ कि विधि केवल राज्यक्री सुप्टि मात्र नहौ हं दन्कि वह्‌ राज्यमे पूर्वेकालीन और उससे उच्चतर भी हू । यूनानके दा्शविक, राजवीय आन्प्तियों (882 /८८८८४) और विधियोमे अन्तर मानते थे और विधिमोको उच्चतर स्थान देते थे। जहा एक ओर हर समुदायकी एक लिखित विधि होती यो जिसका उपयोग सोमित होता था और जो समयत्रे साथ बदलती रहती थी, वहा उसके पीछे एक अखिखित विधि भी होती थी जिसे 'प्राहतिर विपि ष्की विधि ঘা “মারল্টীলিব বিথি/ ঈ; नाम्रोसे पुकारा जाता था और जो समयते साथ बदलतों महीं थो। जिस राज्यमें 'मानव दिधि' अर्थात्‌ मनुष्यों द्वारा बनायी गयी विधि 'दैवी विधि' के अनुरूप नही होती यो उसे भ्रप्द राज्य कहा जाता था।




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