हिंदी चेतना | Hindi Chetna
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
76
श्रेणी :
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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श्याम त्रिपाठी - Shyam Tripathi
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)में और रुपया भी तो आ रहा है चंदे के नाम से।'
नीता शालिनी के तर्कों को हवा में उड़ा तो
नहीं सकी। अब तक उसे रूपल की हर योजना
अनिश्चितता भरे दौर में पार्लर को चमकाने और
व्यवसाय बचाने वाली ही लग रही थी पर अगर
शालिनी की बात सही है तो फिर ये है वो सिरा
जिस तक नीता पहुँच नहीं पा रही थी। और तभी
'शक्ति' का इतना प्रचार होते हुए भी 'शक्ति' क्यों
दीन-हीन, उपेक्षित है अब समझ आने लगा। उसे
रूपल दी के पुराने काम से ऊब और नई
महत्त्वाकांक्षाओं के जन्म का समीकरण भी हल
होता दिख रहा था। मन को समझाते हुए और बात
बदलते हुए उसने कहा--''तो शालिनी तू कब
अपना पार्लर शुरू कर रही है?''
“कहना नहीं भाभी किसी से | सामान तो कब
से जोड़ रही हूँ। बस एक फेशियल चेयर या सस्ते
दाम में मिल गया तो सेकेंड हैंड फेशियल बैड
खरीदना है। सुबह कमरे को पार्लर बना लूँगी और
रात को घर।' आपको तो पता ही है एक कमर
सास-ससुर का है और एक मेरा।”!
“तो देर किस बात की है शालिनी? तू अभी
हिचक रही है न पार्लर से निकलने में? रूपल दी
बहुत बिज़ी हैं न और सारा काम तुझ पर है। यही
मुश्किल है न तेरी?” तमाम सच जानने के बावजूद
नीता की चिंता अब भी रूपल के काम से जुड़ी
थी।
“क्या मुश्किल भाभी। पार्लर तो तब शुरू
करूँगी जब कोर्स खत्म करने का सर्टीफिकेट देगी
आंटी मुझे। रोज़ कहती हूँ पर यल देती है। एक मैं
ही बची हूँ उसकी भरोसेमंद । वो अपना समय ले
रही है और मैं समय काट रही हूँ भाभी यही मुश्किल
है। कोई समझदार लड़की अब नहीं आने वाली
इनके झाँसे में। और क्या इन नई लड़कियों के
भरोसे चला सकती हैं पार्लर? ये करेंगी तीन साल
का कोर्स मेरी तरह? वो तो शुरू के साल मैंने कोर्स
पर ध्यान नहीं दिया, नहीं तो में भी कब की निकल
जाती औरों की तरह। अच्छे घरों की लड़कियाँ तो
वैसे ही गली-मुहल्ले के पार्लरों में काम सीखती
नहीं और ये गरीब लड़कियाँ टिकेंगी इतने साल?
ज़्यादातर तो दिल्ली की है ही नहीं । फिर ये सलम
भी तो चुनाव तक यहाँ है फिर उजड़ेगा या रहेगा
कौन जानता है? स्लम उजड़ा तो आंटी का नया
कुनबा भी उजड़ जाएगा। न रहेगा पार्लर न कोई
16 हित अप्रैल-जून 2015
संस्था-फंस्था। और अब तो अकेले भी नहीं चला
पाएगी आंटी। गुस्सा तो बड़ा आता है भाभी मुझे
आंटी पर..... लेकिन क्या करूँ अपने हाथों से
काम सिखाया है न आंटी ने बस इसीसे उसके बुरे
वक्त में धोखा नहीं देना चाहती।''
एक के बाद एक न जाने कितने रूप बयाँ हो
रहे थे रूपल दी के आज। कैसी वितृष्णा-सी हो
रही थी नीता को आज उनसे।
चुनाव की सरगर्मियाँ अपना रंग पकड़ रही
थीं। उम्मीदवारों के नाम अभी तय नहीं हुए थे पर
पोस्टरबाज़ी के लिए मोहल्ले की दीवारें कम पड़ने
लगीं थीं। अचानक एक दिन सत्तारूढ़ पार्टी के
विरेध में आयोजित धरने-प्रदर्शन के दौरन विधायक
की तस्वीर वाले पोस्टर में कोने में रूपल दी हाथ
जोड़े खड़ी दिखाई दीं। नीता को शालिनी के शब्द
और उसके 'लो इंटलैक्ट' की अपनी बेवकृूफ़ाना
दलील याद आने लगी । अब तस्वीर एकदम साफ
थी। दिन पर दिन रूपल दी पोस्टरों की शोभा बढ़ा
रही थीं और पार्लर के कई क्लाइंट छिटककर दूर हो
रहे थे। शालिनी किस-किस को सँभालती। मैन
पावर कम, बदइंतज़ामी और ऊपर से रूपल दी की
पार्लर के प्रति उदासीनता की हद तक घोर उपेक्षा ।
पार्लर की मनमाफिक सेवाएँ न मिलने से एडवांस
मनी देकर 'शक्ति' से जुड़ी महिलाएँ भी रूपल से
खासी नाणज़ थीं। पार्लर को लेकर नीता की आशंका
सच में बदल गई । गनीमत थी कि अभी ताला नहीं
लगा था बस शालिनी उसे घसीट रही थी किसी
तरह।
नीता को अब विधायक की पार्ट के उम्मीदवारों
की लिस्ट आउट होने का बेसब्री से इंतज़ार था।
ऐसे में अनुराग ने एक दिन ऑफिस से आते ही
धमाका कर दिया-
“विधायक से बुरी तरह झगड़ी है तुम्हारी
रूपल।
“'क्यों...क्या हुआ?!
“उसका कहना है कि मेरा नाम, काम सब
छीन लिया पार्टी ने। अरे बच्ची है क्या? विधायक
तो नहीं आया था इसके पास खुद ही गई थी मेल-
जोल बढ़ाने । अब राजनीति तो फुल टाइम जॉब है,
पार्लर तो ठप्प होना ही था।' '
“पर झगड़ा?
“'कौंसलर की सीट पर लड़ना चाहती थी।
महिला के लिए आरक्षित हो गई है सीट इसीलिए
'शक्ति' के बहाने से मिलने गई थी विधायक से।
अब कहती है कि संस्था का भी मनचाहा इस्तेमाल
किया विधायक ने।'
“पर नाम तो अभी अनाउंस हुए ही नहीं? '
“'सौ प्रतिशत सच्ची खबर है कि आज की
प्रेस कॉन्फ्रेंस में विधायक की पत्नी का नाम आना
तय है। 'शक्ति' की इन्फ्लूऐन्शियल महिलाएँ सब
इससे चिढ़ी हुई हैं और विधायक की पत्नी के साथ
हैं... रूपल की क्या बिसात उसके आगे।!”'
“ये तो गलत हुआ, दी तो...
““रहने दो दी को और टिकिट क्या हलवा है
जो हर कोई ऐरा-गैरा निगल जाएगा? फिर जन-
सेवा के नाम पर किया क्या है उसने ?''
“'ऐसे तो विधायक की पत्नी ने भी क्या किया
है?'' नीता ने प्रतिवाद का स्वर नहीं छोड़ा।
“किया क्यों नहीं है? बरसों पति के साथ
घूम-घूमकर, सभा समिति में बैठकर अपनी दावेदारी
ही तो मज़बूत करती रही, फिर ज़ाहिर सी बात है
राजनीति में पति की सेवा का मेवा रूपल जैसियों
को नहीं, पत्नियों को ही मिलता है।''
औरों के लिए हँसी-मज़ाक में उड़ाने वाली
बात हो पर नीता के लिए रूपल की तमाम खामियों,
कमियों के बावजूद ये बहुत बड़ा झटका था। उनका
सब कुछ खत्म हो चुका था। नाम, काम और
सपना।
“' अब क्या होगा रूपल दी का?''--ये सवाल
नीता को परेशान करता रहा कई दिन। अनुराग की
बात सच हुई। टिकिट विधायक की पत्नी को ही
मिला। आस-पड़ोस में सब रूपल का मज़ाक उड़ा
रहे थे पर नीता ऐसे तड़प रही थी जैसे उसका कुछ
छिन गया हो। सोच ही रही थी कि रूपल दी से
मिलने का बहाना कैसे ढूँढूँ कि खुद उनका फ़ोन
आ गया।
“नीता जी कैसे हो? आपको तो सब पता ही
है कैसा धोखा हुआ है मेरे साथ बुरे वक्त में हेल्प
चाहिए बस | सबको फ़ोन कर रही हूँ, मदद करो।
आप जैसे पुराने क्लाइंट अगर फिर से पार्लर आने
लगें और थोड़े नए क्लाइंट बना दें तो देख लेना
एक दिन पार्लर भी चला लूँगी और शक्ति को खड़ा
करके अपने बलबूते टिकिट भी निकाल लाऊंगी।
सब समझ लिया मैंने ... ऐसे नहीं मिटने दूँगी
अपनी इमेज को।
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