हिंदी चेतना ,अंक -67, जुलाई -सितम्बर 2015 | - MAGAZINE - ISSUE 67 - JULY-SEP 2015

- MAGAZINE - ISSUE 67 - JULY-SEP 2015 by पुस्तक समूह - Pustak Samuhविभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रहा था। बाहर से कोई शोर नहीं। अपने भीतर का शोर भी शांत हो गया था। वह अपनी बात साफ-साफ सुन पा रही थी। उसके भीतर बहुत से सवाल थे, जो अब साफ़ सुनाई दे रहे थे। उसे यहाँ भला लगा। सबसे अधिक तो स्मिता की मुस्कान थी, जो अबूझ पहेली की तरह उसे लगी। स्मिता ने ताश से कुछ लंबे चोड़े रंग बिरंगे कार्ड उसके सामने धर दिए। पहले ताश की तरह उसे फेंय फिर सामने रखते हुए उसमें से एक कार्ड उठाने को कहा। शिवांगी ने एक कार्ड उठाया और अलग रख दिया। फिर कार्ड फेंय और उसमें से एक उठाने को कहा गया। यह क्रम दस बार चला। दस चुने हुए कार्ड को एक साथ अपनी हथेलियों में लिया और गौर से उन्हें देखने लगी। एक-एक कर कार्ड देखती जाती, रखती जाती, फिर दूसरा, तीसरा........ जेसे-जैसे कार्ड देखती जाती स्मिता का चेहरा जलता बुझता। कभी गंभीर होती तो कभी चिंतित दिखाई देती। शिवांगी गौर कर रही थी। उसके चेहरे के बदलते रंगों को देख कर भीतर में भय की लकौर खिंच गई। नसो में कुछ चुभा। स्मिता ने कार्ड से चेहरा उठाया। उसकी आँखें बदल-सी गई थीं। उनमें इतना तेज था कि शिवांगी ने आँखें झुका लीं। 'मैं जो कहने जा रही हूँ, हो सके तो आप कहीं नोट कर लें। शायद कुछ आप भूल जाएँ और वो आपके काम की बातें हों। सो नोटबुक लाईं हों तो नोट कर लेना बेहतर होगा।' शिवांगी के पर्स में पेन तो है, नोटबुक नहीं। स्मिता ने उसे सादा कागज़ पकड़ाया और उसे ज़रूरी पॉइंट्स नोट करने को कहा। कुछ भी कहने से पहले स्मिता भूमिका बाँध रही थी। उसने पानी का गिलास शिवांगी की तरफ बढ़ाया। 'जो पूछेगी, सच-सच बताइएगा...छिपाएँगी तो मेरे लिए उपाय बताना मुश्किल हो जाएगा।' शिवांगी ने ना में सिर हिलाया..उसकी धड़कन बढ़ गई थी। क्या पूछने वाली है। लगता है, सबकुछ जान गई है। पंडित, ज्योतिषी और टैरो कार्ड रीडरों से कुछ छिप नहीं सकता। पहली बार टेरे वाली से पाला पड़ा है। उम्र में ज़्यादा बड़ी नहीं दिखाई देती। बस हाव- भाव, वेशभूषा तिलिस्मी बना रखा है कि कोई भी उलझ जाए इस मायाजाल में। “क्या आपके जीवन में कोई और है..?' ्या..?' 'आप किसी और से प्यार करती हैं...?' “बताइए...चुप मत रहिए...चुप रहेंगी तो कभी हित सीख खितणण श्रेवला जुलाई-सितम्बर 2015 16 1इ छान. ब्यूहुर का ह् जः समस्या का निदान नहीं मिलेगा..बताइए..मैं किसी से नहीं कहूँगी..मुझ पर भरोसा करिए। ये मेरा पेशा हे, मुझसे किसी का गज नहीं छिपता। हम किसी की बात किसी से बताते नहीं। यही हमारे धंधे की मोरालियी है। बोलिए...फिर मैं आपको सारी बातें बताती हूँ...में आसानी से जड़ तक पहुँच पाऊँगी।' 'मैं तो कुछ ओर जानना चाहती हूँ। मेरे करियर और दांपत्य जीवन के बारे में बताइए। बहुत समस्याएँ झेल रही हूँ। मेंने सोचा पहले आप बताएँगी फिर मैं अपने बारे में बताऊँगी, लेकिन आप तो मुझसे ही पूछ रही हैं. .आपको इन कार्डों से कुछ पता नहीं चला क्या....?' ' आपकी ज़िदगी बहुत डिस्टर्ब चल रही हें। ये कार्ड मुझे सब कुछ बता रहे हैं आपके बारे में, बस मैं आपसे पूछती जाऊँ, आप 'हाँ' 'ना' करेंगी तो ट्रीटमेंट में आसानी होगी मुझे ..।' शिवांगी चुप लगा गई। ये सब कुछ मुझी से क्‍यों कहलवाना चाहती है। बड़ी पंडिताइन बनती है, खुद बताए ना कि मुझे क्या समस्या है। सब कुछ मैं ही बता दूँगी तो ये अपनी तरफ से क्‍या बताएँगी। मन ही मन उधेड़बुन में थी कि स्मिता की गंभीर आवाज़ गूँजने लगी। 'आपने जितने कार्ड्स चुनें, वे सब आपकी स्थिति की भयावहता की ओर इंगित कर रहे हें। में एक-एक करके आपकी ज़िदगी की समस्याओं का खुलासा करती जाती हूँ। बीच-बीच में आपको जो काम का लगे, नोट कर लेना। ये रहा आपका पहला कार्ड.. 'आँधी चल रही है, जंगल टूट रहे हैं, एक स्त्री तेज़ हवाओं से घिरी भाग रही है...' ये तस्वीर बता रही है कि आप चौतरफा मुसीबतों से घिर चुकी हैं। अकेली हैं आप और इनसे मुकाबले का साहस नहीं बटोर पा रही हैं...।' शिवांगी ब्याह कर ससुराल आ गई है। पहला कदम रखा ही था कि कोई कोकिल कंठी कूकी- 'बउआ जी, क्या लाए हैं मेरे लिए ? आज तो सब लुयना ही पड़ेगा। बिना चुकाए गुज़ारा नहीं...और वह कंठ गा पड़ी...माई गे सुनए छलिअई, सत्यम बाबू बरा धनिक छतिन, हमर सब के नेग चुकइतिन कहिया, आज ना चुकएतन, चुकएतन कहिया...' यह गाना उसे इतना भाया कि लगा घूँघट के भीतर से ही गा उठे। नई दुल्हिन का वेश धरे, कुछ तो लोक लिहाज निबाहना था। ज्यादा दिन नहीं, कुछ ही दिन की तो बात है। सत्यम की आवाज़ निकली-“'बस बस..अब अंदर तो जाने दो...भाभी, आपके लिए दाई लाया हूँ। सेवा करेगी आपकी...।' “जाइए. बड़े आए...सहर की लरकी को हम कहाँ दाई बना पाएँगे जी, हम ही न बन जाएँगे... चलिए नेग निकालिए...।' इस छेडछाड़ के बीच शिवांगी का दिल धक से रह गया। दाई...यह पत्थर सीधे मर्म पर जाकर लगा। हूँह...दाई हूँ में...। ये भाभी क्या बला है। सत्यम कुछ भी बोल सकते थे, दाई क्‍यों बोले। यह शूल तब जो चुभा, वह आज तक नहीं निकला। वह गँवई माहौल से जल्दी निकल कर जमशेदपुर और अब दिल्‍ली पहुँच गई। वो तो भला हो उसकी पढ़ाई- लिखाई का जिसने दाई बनने से बचा लिया। नहीं तो उस बड़े परिवार में भाभी जेसे कितनी बहुएँ बूढ़ी सासों को तेल मलते-मलते खुद ही बुढ़ा रही थीं। उन दिनों को, उस माहौल को अब वह याद भी नहीं करना चाहती। उसे अपने अतीत से नफ़रत होती है। 'ये आपका दूसरा कार्ड...एक स्त्री नदी किनारे खड़ी है...नाव दूर दिखाई दे रही है...उसे उस नाव की ज़रूरत है, उस पार जाना चाहती हैं, उसकी पुकार नाबिक तक नहीं पहुँच रही है..।' शिवांगी को गँबई ससुराल से मायके वापस जाना है। सत्यम पटना लौट गया है। कुछ दिनों की बात कहके। बूढ़ी गंडक का पानी गाँव में घुस आया है। आँगन तक में पानी भर गया है। छत पर सबको शरण लेनी पड़ी है। मुख्य सड़क तक जाने का रास्ता डूब गया है। सारे संचार माध्यम ठप्प और कभी-कभार आने वाली बिजली भी गायब। उसके मोबाइल का सिगनल




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