हिंदुस्तान से एक ख़त | HINDUSTAN SE EK KHAT
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
222 KB
कुल पष्ठ :
8
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)8/2/2016
हो गयी। हमारे पूर्वज कि सादात अजाम में से थे। इतिहास ने बहुत से कष्ट और तकलींफें देखी हैं मगर वंशावली
के गुम होने का दुख हमें सहना था। अब हम मुसीबत का मारा खानदान हैं जो अपनी वंशावली गुम कर चुका है
और अस्त-व्यस्तता का शिकार है। कोई हिन्दुस्तान में खेत हुआ, कोई बांग्लादेश में गुम हुआ और कोई
पाकिस्तान में मारा-मारा फिरता है। आस्था में खलल पड़ चुका है। गैर इस्लामी तौर-तरींके अपना लत्रिये हैं, दूसरे
धर्म और सम्प्रदायों में शादियाँ कर रहे हैं। यही हाल रहा तो थोड़ी मुद्दत में हमारे खानदान की असल नस्ल
बिलकुल ही नष्ट हो जाएगी और कोई यह बताने वाला भी नहीं रहेगा कि हम कौन हैं और क्या हैं।
बेटे सुन कि हम मां-बाप दोनों की तरफ से सैयद हैं। हजरत इमाम रजी कांजिम से हमारी वंशावली मिल्रती है।
मगर खुदा का शुक्र है कि हम राफिंजी (हंजरत अली के वे अनुयायी जिन्होंने जमल की लड़ाई में उनका साथ छोड़
दिया) सही आस्था रखने वाले हनफी मुसलमान (वे सुन््नी मुसलमान जो इमाम अबूहनीफा के अनुयायी हैं। सच्चे
मुसलमान) हैं। अहले-बेत (हंजरत मुहम्मद के परिवार के सदस्य) से मुहब्बत रखते हैं। मियां जानी का तरीका
चला आता था कि आशूर (मुहर॑म की दस तारीख, हंजरत इमाम हुसैन की शहादत का दिन) के दिन रोजा रखते
और दिन भर मुसल्ले (नमाज पढ़ने की चटाई या दरी) पर बैठे रहते। हमारे घर में एक तसबीह थी कि आशूर के
दिन शाम की नमाज के समय सुर्ख हो जाए करती थी। मियां जानी बताते थे कि ये खास उस मिट्टी के दाने हैं जहां
हमारे वंश प्रवर्तक सैय्यद हंजरत इमाम हुसैन घोड़े से फर्श-ए-जमीन पर आये थे। इस तसबीह के सुर्ख होने के
साथ वालिद मम की तन्मयता बढ़ जाए करती थी। मियां जानी बताते थे मगर छाती पीटने और रुदन से परहेज
करते थे कि यह अनुचित रस्म है। हां खिचड़े की देगें पकती थीं जो गरीबों और दीन दुखियों में बांटी जाती थीं।
बंटवारे के बाद बस एक देग रह गयी थी। पिछले बरस हम उस एक देग से भी गये। कबूली का देगचा पकवाया
और गरीबों में बांट दिया, अगले बरस का हाल अल्लाह मियां को मालूम है। महंगाई बढ़ती जा रही है और हमारा
हाल खस्ता होता जा रहा है। बेटे हमें यह तो माल्रूम है कि पाकिस्तान में प्याज किस भाव बिक रही है। मगर एक
बात सुन लो कीमतें चढ़कर गिरा नहीं करतीं और अंख्लाक गिरकर संभला नहीं करते अत: पनाह मांगो उस वक्त
से जब चींजों की कीमतें चढ़ने लगें और अख्लाक गिरने लगें। जब ऐसा वक्त आ जाए तो बन्दों को चाहिए पापों
की क्षमा मांगें और तौबा करें और कलाम-ए-पाक की तलावत (पठन) करें कि आद और समूह की बस्तियों के
जिक्र में समझ-बूझ रखनेवालों के लिए बहुत-सी निशानियां हैं।
खैर, मैं जिक्र अपने खानदान का कर रहा था जिसे मैंने इकट्ठा भी देखा मगर बिखरते हुए ज्यादा देखा। हम तीनों
भाइयों को अपने हुजूर में बिठाकर मियां जानी ने बयान किया कि खुदा उनकी कब्र को हरसिंगार की सुगन्ध से
सजाए रखे। वे फर्माते थे कि मेरे वालिद बुजुर्गवार सैयद हातिम अली ने उस वक्त, जब उनका यात्रा-समय करीब
आया, फर्माया जनाब ने, कि मुझसे बयान किया मेरे बाप सैयद रुस्तम अली ने उस तजकरे के प्रसंग से कि
जिसमें हमारे खानदानी हालात दर्ज हैं और जो नष्ट हो गया है। उस समय जब उन्होंने सन सत्तावन में बाईस
ख्वाजा की चौखट को छोड़ा और बरस-बरस परेशान हाल जगह-जगह फिरे। और प्रसंग से उन बुंजुर्गों के बयान
करता हूं मैं तुमसे कि हम असल में अस्फिहान कि मिट्टी हैं। जब शहंशाह हुमायूं ने अपने राज्य की प्राप्ति के लिए
इस शहर में अपनी फौज तैयार की तो हमारे मूल पुरुष मीर मंसूर मुहद्दिस जो खजूर विक्रेता थे और हदीस (हंजरत
मुहम्मद साहब के कथन) की विद्या के असीम सागर थे। अस्फिहान निसफ जहान से उस वंक्त जनाब के
हमरकाब (साथ) हुए और जुलमत कदा (अंधेरा मकान) हिन्द में दांखिल हुए, ईमान के प्रकाश-स्तम्भ बने।
अकबरबाद में उनका मजार आज भी सबके आकर्षण का केन्द्र है। ःकब्र कच्ची है। कंवारियां मिट्टी उठाकर मांग
में डालती हैं और वह मांग का सिन्दूर बन जाती है। खाली गोद ब्याहियां मिट्टी आंचल में बांधकर ले जाती हैं और
4/8
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