अपत्नी | APATNI

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ममता कालिया - Mamta Kalia

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8/29/2016 डाउनलोड थोड़ा-सा प्रगतिशील ममता कालिया विनीत ने अपनी सहपाठी चेतना दीक्षित के साथ दोस्ती, मुहब्बत और विवाह की सीढ़ियाँ दो साल में कुछ इस तरह चढ़ लीं कि एक दिन चेतना उसके घर हमेशा के लिए आ बसी। अपनी सफलता पर अभिभूत हो गया विनीत। साथ ही सावधान। प्रेम का प्रथम ज्वार जरा धीमा पड़ा तो उसे सबसे पहले यह चिन्ता हुई कि जिस आसानी से उसने चेतना को पटा लिया उतनी ही आसानी से कोई और न उसे पटा ले। साल भर में चेतना की कमनीयता में कोई कमी नहीं आई, उलटे उसमें इजाफा ही हुआ था। शोखी अब बातों के साथ-साथ उसकी आँखों में भी उतर आई थी। दरअसल विनीत आजाद भारत के अधिसंख्य शिक्षित नवयुवकों जैसा ही था, थोड़ा-थोड़ा सब कुछ -- थोड़ा-सा आधुनिक, थोड़ा-सा, पारम्परिक, थोड़ा-सा प्रतिभावान, थोड़ा-सा कुंद, थोड़ा-सा चैतन्य, थोड़ा-सा जड़, थोड़ा-सा प्रगतिशील, थोड़ा-ला पतनशील। सभी की तरह उसके सपनों की स्त्री वही हो सकती थी जो शिक्षित हो पर दब कर रहे, आधुनिक हो, लेकिन आज्ञाकारी, समझदार हो लेकिन अलग सोच-विचार वाली न हो। विनीत देखता चेतना अपना पूरा दिन किसी न किसी बात या काम में मगन रह कर बिताती। ऐसा लगता जीवन की कोई सुरताल उसके हाथ लग गई है और वह एक लम्बी नृत्यमुद्रा में लीन है। विनीत ने सोचा उसे तौल लेना चाहिए चेतना के दिमाग में क्या चल रहा है। उसने बात कुछ इस तरह शुरू की, 'चेतू, तुम्हारे सिवा और किसी से बात करना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।' उसके कान यह सुनने का इंतजार कर रहे थे कि चेतना कहेगी उसे भी विनीत के सिवा किसी और लड़के से बोलना गवारा नहीं। चेतना ने कहा, 'यह तो गंभीर समस्या है। कल को मेरे दोस्त घर आयेंगे तो तुम क्या करोगे?' 'मैं दूसरे कमरे में चला जाया करूँगा,' उसने जल-भुन कर जवाब दिया। 'देखो, मुझे तो सबसे बोलना अच्छा लगता है, बच्चों से, बड़ों से यहाँ तक कि मैं किताबों और टी.वी. से भी बोल लेती हूँ।' 'चेतना, दुनिया इस बीच बहुत खराब हो चली है। जब भी तुम किसी से बात करो, एक फासले से बोला करो। लोग लड़कियों के खुलेपन का गलत मतलब निकालते हैं। निकालने दो, यह उनकी समस्या है, मेरी नहीं।' चेतना ने कंधे उचका दिये। 15




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