स्नेह भरी उंगली | Sneh Bhari Ungali

Sneh Bhari Ungali by अनुपम मिश्र -ANUPAM MISHRA

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अनुपम मिश्र -ANUPAM MISHRA

Add Infomation AboutANUPAM MISHRA

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
को घर से बाहर के लोग भी जानते हैं। क्‍यों जानते हैं? क्योंकि वे कविताएँ लिखते हैं। हमारे मन्‍ना कवि हैं! कवि कालदर्शी होता है? हमें नहीं मालूम था। कल क्या होगा बच्चों का, उनकी पढ़ाई-लिखाई कैसी करनी है - बहुत ही बड़े माने गए ऐसे प्रश्न हमारे कवि पिता ने कभी सोचे नहीं होंगे। जब एक शाम मैं और नन्‍्दी स्कूल से घर लौटे थे तो मन्‍ना ने हमें बताया कि अगले दिन हम सब बंबई से बेमेतरा जाएँगे। बड़े भैया के पास। मन्‍ना के बड़े भैया मध्य प्रदेश के दुर्ग जिले की एक छोटी- सी तहसील बेमेतरा में तब तहसीलदार थे। हम सब बेमेतरा जा पहुँचे। दो-चार दिन बाद पता चला कि मन्‍ना और अम्मा वापस बंबई लौट रहे हैं और अब हम यहीं बेमेतरा में बड़े भेया के पास रह कर पढ़ेंगे। हैदराबाद में एक बार सीढ़ियों से गिरने पर काफी चोट त्रगने से मैं खूब रोया था। तब के बाद अब की याद है - बेमेतरा में खूब रोया, उनके साथ वापस बंबई लौटने को। आँखें तो उनकी भी गीली हुई थीं पर हम वहीं रह गए, मन्‍ना-अम्मा लौट गए। ताऊजी यानी बड़े भैया का प्यार मन्‍ना से बड़ा ही निकाला। यह तो हमें बहुत बाद में पता चला कि बड़े पिताजी के छह में से पाँच बेटे बड़े हो कर कॉलेज हॉस्टल आदि में चले गए थे और उन्हें अपना घर सूना लगने लगा था, इसलिए उस सूने घर में रौनक लाने के लिए मँझले भाई मनन्‍ना ने हम दोनों को उन्हें सौंप दिया था। बंबई से मन्‍ना दिल्‍ली आकाशवाणी आ गए। तब हम भी एक गर्मी में बेमेतरा से शायद चौथी- पाँचवीं की पढ़ाई पूरी कर दिल्‍ली बुला लिए गए। हैदराबाद, बंबई की यादें धुँधली-सी ही थीं। बेमेतरा छोटा कस्बा था और बड़े भैया सरकार के बड़े अधिकारी थे, इसलिए बाजार आना-जाना, खरीददारी, डबलरोटी - ऐसे विचित्र अनुभवों से हम गुजरे नहीं थे। दिल्‍ली आने पर मन्‍ना के साथ घूमने, खुद चीजें खरीदने के अनुभव भी जुड़े। एक साधारण, ठीक माने गए स्कूल रामजस में उन्होंने मुझे भरती किया। सातवीं-आठवीं-नौवीं में विज्ञान में नंबर थे। इसी बीच उन्हें सरकारी मकान किसी और मुहल्ले में मित्र गया। शुभचिंतकों के समझाने पर भी मनन्‍ना ने मेरा स्कूल फिर बदल दिया - नए मुहल्ले सरोजनी नगर में टेंट में चलनेवाले एक छोटे-से सरकारी स्कूल में। यह घर के ठीक पीछे था। पैदल दूरी। 'बच्चा नाहक दिल्‍ली की ठंड-गर्मी में आठ-दस मील दूर के स्कूल में बसों में भागता फिरे' यह उन्हें पसंद नहीं था। यहाँ विज्ञान भी नहीं था। मैं कला की कक्षा में बैठा। मुझे खुद भी तब पता नहीं था कि विज्ञान मिलने न मिलने से जीवन में क्‍या खोते हैं - पाते हैं। यहीं नौवीं में हिन्दी पढ़ाते समय जब किसी एक सहपाठी ने हमारे हिन्दी के शिक्षक को बताया कि मैं भवानी प्रसाद मिश्र का बेटा हूँ तो उन्होंने उसे 'झूठ बोलते हो' कह दिया था। बाद में उनने मुझसे भी लगभग उसी तेज आवाज में पिता का नाम पूछा था। घर का पता पूछा था, फिर किसी शाम वे घर भी आए। अपनी कविताएँ भी मन्‍ना को सुनाईं। मन्‍ना ने भी




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now