स्नेह भरी ऊँगली | SNEH BHARI UNGLI

SNEH BHARI UNGLI by अनुपम मिश्र -ANUPAM MISHRAपुस्तक समूह - Pustak Samuh

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

अनुपम मिश्र -ANUPAM MISHRA

No Information available about अनुपम मिश्र -ANUPAM MISHRA

Add Infomation AboutANUPAM MISHRA

पुस्तक समूह - Pustak Samuh

No Information available about पुस्तक समूह - Pustak Samuh

Add Infomation AboutPustak Samuh

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
8/2/2016 माने गए स्कूल रामजस में उन्होंने मुझे भरती किया। सातवीं-आठवीं-नौवीं में विज्ञान में नंबर थे। इसी बीच उन्हें सरकारी मकान किसी और मुहल्ले में मित्र गया। शुभचिंतकों के समझाने पर भी मनन्‍ना ने मेरा स्कूल फिर बदल दिया - नए मुहल्ले सरोजनी नगर में टेंट में चलनेवाले एक छोटे-से सरकारी स्कूल में। यह घर के ठीक पीछे था। पैदल दूरी। 'बच्चा नाहक दिल्‍ली की ठंड-गर्मी में आठ-दस मील दूर के स्कूल में बसों में भागता फिरे' यह उन्हें पसंद नहीं था। यहाँ विज्ञान भी नहीं था। मैं कला की कक्षा में बैठा। मुझे खुद भी तब पता नहीं था कि विज्ञान मिलने न मिलने से जीवन में क्या खोते हैं - पाते हैं। यहीं नौवीं में हिन्दी पढ़ाते समय जब किसी एक सहपाठी ने हमारे हिन्दी के शिक्षक को बताया कि मैं भवानी प्रसाद मिश्र का बेटा हूँ तो उन्होंने उसे 'झूठ बोलते हो' कह दिया था। बाद में उनने मुझसे भी लगभग उसी तेज आवाज में पिता का नाम पूछा था। घर का पता पूछा था, फिर किसी शाम वे घर भी आए। अपनी कविताएँ भी मन्‍ना को सुनाईं। मन्‍ना ने भी कुछ सुनाया था। उस टेंटवाले स्कूल में ऐसे कवि का बेटा? मन्‍ना की प्रसिद्धि हमें इन्हीं मापदण्डों, प्रसंगों से जानने मिली थीं। श्री मोहनलाल वाजपेयी यानी लालजी ककक्‍्कू मन्‍ना के पुराने मित्र थे। मन्‍ना ने उनके नाम एक पूरी पत्रनुमा कविता लिखी भी। बड़ा भव्य व्यक्तित्व। शांति निकेतन में हिन्दी पढ़ाते थे। शायद सन 1957 में वे रोम विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना करने बुलाए गए थे। वहाँ से जब वे दिल्‍ली आए, एक बार तो एक बहुत ही सुंदर छोटा-सा टेपरिकॉर्डर लाए थे मन्‍ना के लिए। नाम था जैलेसी। जैली यानी ईर्ष्या। उसमें छोटे स्पूल लगते थे। उन दिनों कैसेटवाले टेप चले नहीं थे। शहर का न सही, शायद मुहल्ले का तो यह पहला टेपरिकॉर्डर रहा ही होगा! इसका हमारे मन पर बहुत गहरा असर पड़ा था। विज्ञान के आगे मैंने तो माथा ही टेक दिया था। क्या गजब की मशीन थी। हर किसी की आवाज कैद कर ले, फिर उसे ज्यों का त्यों वापस सुना दे! शायद लालजी कक्‍्कू ने यह यंत्र इसलिए दिया था कि मन्‍ना इस पर कभी-कभी अपना काव्य पाठ रिकार्ड करेंगे। पर वैसा कभी हो नहीं पाया| एक तो ऐसे यंत्र चलाने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी, और फिर अपनी कविता खुद बटन दबा कर रिकार्ड करना, उसे खुद सुनना, दूसरों को सुनाना - उन्हें पसंद नहीं था। बाद में हमारे एक बड़े भाई बंबई से वास्तुशास्त्र पढ़ कर जब दिल्‍ली आए तो जैलेसी पर मुकेश, किशोर कुमार और लता के गाने जरूर जम गए थे। आज भी हमारे घर में मन्‍ना की एक भी कविता का पाठ रिकार्ड नहीं है। कभी-कभी नितांत अपिरिचित परिवार में परिचय होने के बाद सन्नाटा, गीतफरोश, घर की याद, सतपुड़ा के घने जंगल आदि कविताओं के पाठ की रिकार्डिंग हमें सुनने मिल जाती हैं। ये कविताएँ उन शहरों में मन्‍ना ने पढ़ी होंगी। वहीं वे रिकार्ड कर ली गईं। हमें ऐसे मौकों पर लालजी कक्कू के जैलेसी की याद जरूर आ जाती है, पर ईर्ष्या नहीं होती। कविकर्म जैसे शब्दों से हम घर में कभी कहीं टकराए नहीं। मन्‍ना कब कहाँ बैठ कर कविता लिख लेंगे - यह तय नहीं था। अक्सर अपने बिस्तरे पर, किसी भी कुर्सी पर एक तख्ती के सहारे उन्होंने साधारण से साधारण चिट्ठों पर, पीठ कोरे (एक तरफ छपे) कागजों पर कविताएँ लिखीं थीं। उनके मित्र और कुछ रिश्तेदार उन्हें हर वर्ष नए साल पर सुंदर, महँगी डायरी भी भैंट करते थे। पर प्रायः उनके दो-चार पन्ने भर कर वे उन्हें कहीं रख बैठते थे। बाद में उनमें कविताओं के बदले दूध का, सब्जी का हिसाब भी दर्ज हो जाता, कविता छूट जाती। भैंट मित्रे कविता संग्रह उन्हें खाली नई डायरी से शायद ज्यादा खींचते थे। हमें थोड़ा अटपटा भी लगता था पर उनकी कई कविताएँ दूसरों के कविता संग्रहों के पन्‍नों की खाली जगह पर मित्रती थीं। पीठ कोरे पन्‍नों से मन्‍ना का मोह इतना था कि कभी बाजार से कागज खरीद कर घर में आया हो - इसकी हमें याद नहीं। फिर यह हम सब ने भी सीख लिया था। आज भी हमारे घर में कोरा कागज नहीं आता। 4/5




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now