झारखंड दर्शन -1990 | JHARKHAND DARSHAN - 1990

JHARKHAND DARSHAN - 1990 by पुस्तक समूह - Pustak Samuhसीताराम शास्त्री -SITARAM SHASTRY

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सीताराम शास्त्री -SITARAM SHASTRY

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जिस सीमा युद्ध में अनुशासित सैनिकों ने अद्ध -हथियारवन्द किसानों को कुचछ डाला, उसके बिवरण अपने आप में अप्रिय है और बे न ही विजेताओं को कोई गौरव प्रदान करते हैं और त युद्ध-कलछा में कोई सोख देते हैं । तेरह वर्ष बाद, संथालों का दमन करने वाले अधिकारियों से कारवाई की विशद जानकारी मुश्किल से प्राप्त की जा सकी। उसमें से एक ने मुझसे कहा, “बह युद्ध नहीं था, वह तो प्राणदण्ड देना था; हमें आदेश दिया गया था कि जब भी किसी गाँव का धुआँ जंगछ से ऊपर उठता दिखाई पड़े तभीं हम तिकल पड़ । मजिस्ट्र ट हमारे साथ जाता था| मैं अपने सिपाहियों के साथ गाँव को घंर लेता था और मजिस्ट्रूट बछवाइयों को आत्म-सम्पंण करने के लिए कहता था। एक बार 45 संथारू एक मिट्टी के घर में शरण लिये हुए थे। मजिस्ट्रेट ने उनसे आत्म समयंण करने के लिए कहा, लेकिन उसके जवाव में अध-खुले दरवाजें से तीरों की बौछार आयी। मैंने कहा, “श्रीमान मजिस्ट्‌ूट, यह जगह आपके उपयुक्त तहीं है ।” और में अपने सिपाहियों के साथ गया और सिपाहियों ने दीवार में एक छेद की। मैंने बलवाइयों से कहा कि वे आत्म-समण कर, नहीं तो मैं गोली चलाऊंगा। दरवाजा फिर आधा खछा ओर तीरों की एक बौछार आयो। सिपाहियों की एक कम्पनी आगे बढ़ी और छेंद में से गोली चलायी। जब मेरे सिपाही बन्दूक में गोलियाँ भर रहे थे, मैंने फिर से संथालों को आत्म- समपंण करने के लिए कहा । फिर से दरवाजा खुला और वीरों की एक भड़ी आयी । कुछ सिपाही घायल हो गये, हमारे चारों तरफ गांव जरू रहा था, ओर मुझे सिपाहियों को अपना काम करने के लिए आदेश देना पड़ा । अन्त में जब दरवाजे से तीर निकलना कम हो गया तब मैंने निर्णय लिया कि अन्दर जाकर, सम्भव हो तो, कुछ लोगों को जिन्दा बचा लिया जाये । जब हम अंदर गये तो हमने देखा कि लाशों के बीच एक बूढ़ा आदमी खून से लथपथ खड़ा है। मेरा एक सिपाही उसको हथियार डाल देने के लिए कहते हुए उस्तकी ओर गया । बूढ़ा आदमी सिपाही की ओर भपटा और अपने फरसे से उसे मार गिराया ।” कमांडिंग अधिकारी ने आगे कहा, “वह युद्ध नहीं था; वे आत्म-सम1ण करना नहीं जानते थे । जबतक उनकी जातीय डगड़ुगी वजती रहती है तबतक पूरा दल खड़े रहता है और गोडी खाकर गिरने के लिए वे तेयार रहते हैं। अकसर उनके तीरों से हमारे छोग मारे जाते थे और इसलिए हमें उनके खड़े रहने तक गोली चलाना पड़ता था । जब उत्के ढोलों का बजना रूक जाता है तब वे करोव एक चोथाई मोर तक पीछे हट जाते हैं; तब फिर से ढोल बजने लगते और हम पहुंच कर गोली चलाने तक चुपचाप खड़े रहते थे । युद्ध में ऐसा कोई सिपाही नहीं था जो खुद पर दार्म त महसूस किया हो। अधिकतम कंदी घायल थे। वे उनके खिलाफ लड़ने के लिए हमारी भर्त्सता करते थे। वे हमेशा कहते थे कि उनकी लड़ाई बंगालियों से है, अंग्रजों से नहीं। थे घोषणा करते थे कि अगर एक भी अंग्रज को उन्तके पास भेजा जाता जो इनके खिलाफ हुई बेइन्साफी को समकता और उसे दूर करता तो कोई युद्ध नहीं हुआ होता । यह बात सच नहीं है कि वे जहर-वुझ तीरों का प्रयोग करते थे । इसके पहले इतने सच्चे इन्सानों से मेरो कभी भेंट नहीं हुई; उन्माद को हद तक वे बहादुर थं। उनके ढोल बजने बन्द होने तक मेरे एक ऑफिसर ने 75 छोगों को मार गिराया और तब दल पीछ हटा ।” इन कड़ी कार वाश्यों के फलस्वछूप अगस्त के मध्य तक विद्रोही समतऊों से हट गये । इसलिए एक घोषणा 14




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