अनौपचारिका -जून 2012 | ANAUPCHARIKA HINDI MAGAZINE - JUNE 2012

ANAUPCHARIKA HINDI MAGAZINE - JUNE 2012 by पुस्तक समूह - Pustak Samuhरमेश थानवी -RAMESH THANVI

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रमेश थानवी -RAMESH THANVI

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अध्यापक देस की सुवास परदेस में शिशुपाल सिंह नारसरा' भाई शिशुपाल शेखावाटी के एक ऐसे अध्यापक से हमारा परिचय करा रहे हैं जो अपनी प्रतिभा और मेहनत की सुवास परदेस में फैला रहे हैं। देस से उनका मोह छूटा नहीं है। वे जब भी अपने गांव आते हैं तब लोगों से बड़े चाव से मिलने के साथ-साथ वे आस-पास की स्कूल में जाकर पढ़ाना भी नहीं भूलते। शिशुपाल जी बताते हैं कि प्रोफेसर घासीराम का देस प्रेम और शिक्षा, साधना न केवल अनुपम है बल्कि अनुकरणीय भी। ए॒संं. स धरा पर अनेक लोग जन्म लेते हैं, चले जाते हैं और लोग उन्हें भूल जाते हैं किन्तु कुछ अपने उत्कृष्ट कर्मों के चरण चिह्न आस्था के शिलालेखों पर स्थायी रूप से अंकित कर देते है। ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी हैं-स्वनाम धन्य धरती पुत्र डॉ. घासीराम वर्मा, जिन्होंने शिक्षा और समाजोत्थान के लिये अपने जीवन भर की कमाई समर्पित कर फकीरी का जीवन जिया है। आपका जन्म १ अगस्त, १६ २७ को चौधरी श्रीलादूराम जी के घर सीगड़ी (झुंझुनूं) में हुआ। समय की गति भी अद्भुत होती है। एक साधारण किसान परिवार में जन्म लेकर अमेरिका की विभिन्न यूनिवर्सिटीज में गणित पढ़ाना। कुछ विश्वास कम होता है न, किन्तु उनके जीवन संघर्ष की कहानी कुछ इसी तरह घटित होती है। घासीराम जी के पिताश्री लादूराम जी यद्यपि अनपढ़ थे, किन्तु जोड़, बाकी, गुणा, भाग उन्हें जुबानी याद थे। उनका गणित ज्ञान प्रखर था, जो उन्हें विरासत में मिला। प्रारंभिक शिक्षा वाहिदपुरा में गुरुमनीरामजी से ली। उस समय की गणित पढ़ाई में चालीस तक पहाड़े, सवा, डेढ़, ढाई, साढ़े तीन के पहाड़े व _कनका । कनका के माने १ से लेकर १०० तक की संख्या को क्रमश: उसी संख्या से गुणा करना। जैसे एक को एक से, दो को दो से, तीन को तीन से सड़सठ को सड़सठ से, €६ को ६६ से गुणा करने का पहाड़ा। इन सबमें घासीराम पारंगत हुए। घीसा नाम सुनकर महादेवी की संस्मरणात्मक कहानी घीसा की याद आ जाती हैं महादेवी के घीसा की तरह घासीराम ने भी अभावों में ही अध्ययन किया। पिलानी पढ़ने गये तो हेम सिह राठौड़ की अनुशंसा पर शुकदेव पांडे ने अढ़ाई रुपये मासिक की छात्रवृत्ति स्वीकृत कर दी। उस समय छात्रावास का खर्चा तीन-चार रुपये आता था। बाकी सवा-डेढ़ रुपया घरवालों को देना पड़ता। उस समय सवा-डेढ़ रुपया बहुत बड़ी चीज होती थी। घरवाले बड़ी मुश्किल से दे पाते थे। १६४२ में गांधीजी के करो या मरो' आह्वान पर घासीराम जी स्कूल छोड़ कर घर चले गये। घरवालों ने समझाया कि पढ़ना अच्छा है, किन्तु आप माने नहीं। अगस्त के बाद अगले मार्च -अप्रेल में उनका पिलानी जाना हुआ और वहां गुलाबदत्त जी अध्यापक से सम्पर्क हुआ। उन्होंने समझाया कि अंग्रेज विद्या और विज्ञान के कारण ही हमारे से आगे हैं। अगर कुछ करना चाहते हो तो विद्या पढ़ो । घासीराम को उनकी बात जंच गई और उन्होंने घर जाकर कहा कि मैं पुन: जुलाई में पढ़ने जाऊंगा। वहां भी छात्रवृत्ति मिलती रही। किन्तु नौवीं दसवीं पास करने के बाद घरवालों की अपेक्षा नौकरी करवाने की थी क्योंकि आर्थिक तंगी थी और उस जमाने में नौवीं-दसवीं पढ़े लिखे की नौकरी लग जाती थी । जून, २०१२




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