राज समाज और शिक्षा | RAJ SAMAJ AUR SHIKSHA
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
75
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
कृष्ण कुमार - Krishn Kumar
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बच्चों का वयस्कों से परिचय और उनके साथ काम करने का अनुभव
अ | मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में बच्चे केवल उन वयस्कों के संपर्क
में आ पाते हैं, जिनसे उनके अभिभावकों के संबंध होते हैं । कक्षा में एक अध्यापक
से बँधकर वे सकल में उपलब्ध अन्य वयस्कों से परिचय की संभावना खो देते हैं शक
सरकारी प्राथमिक शालाओं में देश में लगभग हर कहीं ऐसी व्यवस्था है, जिसमें
एक अध्यापक के जिम्मे एक कक्षा पूरी तरह से दे दी जाती है । बच्चे लगातार हर
दिन एक व्यक्ति के साए में रहकर ऊब जाते हैं, उस व्यक्ति से कुछ नया सीखने की
क्षमता और उसके साथ काम करने की दिलचस्पी उनमें नहीं रह जाती । उनके
बीच का सेत किताबें रह जाती हैं जो वैसे भी बहुत जीवंत नहीं होतीं। कुछ
मैरसरकारी, तकनीकी शिक्षा संस्थाओं में प्राथमिक कक्षाओं में अलग-अलग
विषयों के लिए अलग-अलग अध्यापक होते हैं | बच्चे एक व्यक्ति से बँधे नहीं
रहते लेकिन उनका दायरा सीमित ही रहता है । है
_ क्रक्षा-व्यवस्था का एक अन्य प्रभाव पाठ्यक्रम के क्षेत्र में |दखाइ पड़ता है ।
सिद्धाततः पाठ्यक्रम का एक कार्यक्रम होता है, जो बच्चों और अध्यापक की
परिस्थिति तथा समाज में शिक्षा के निर्धारित लक्ष्य के आधार पर बनाया जाना
चाहिए । जिस अर्थ में पाठ्यक्रम का इस्तेमाल भारत में होता है, उस अर्थ में वह
एक शासकीय नीति या आदेश से भिन्न नहीं होता । हमारे यहाँ पाठ्यक्रमों का
बच्चों और अध्यापक की परिस्थिति से कोई संबंध नहीं होता । वह शिक्षा संबंधी
शोधकेंद्रों में बनाया जाता है और द्रदराज जिलों के गाँवों में स्थित स्कूल के बच्चों
व अध्यापकों पर सीधे-सीधे लाद दिया जाता है। आजादी के बाद लगभग दो
दशकों तक पाठ्यक्रमों में बहुत मामूली परिवर्तन हुए । इसके बाद राष्ट्रीय शैक्षिक
अनसंधान और प्रशिक्षण परिषद की अभूतपूर्व खोजों ने असर दिखलाना आरंभ
किया और देखते ही देखते देश भर के प्रांतों के पाठ्यक्रम बदलने लगे । कुछ जगह
परिवर्तन इतनी भयावह गति से हुए कि भारी मात्रा में छपी छपाई पुस्तकें बेकार हो
गईं। नई पस्तकों की छपाई और वितरण एक समस्या बन गया । इनसे अधिक
विचित्र बात यह हई कि पाठ्यक्रम नीचे की ओर सरकने लगा अर्थात पाठ्यसामग्री
ऊँची से नीची कक्षाओं में स्थानांतरित कर दी गई | ऐसा करने की सिफारिश
1964-66 के शिक्षा आयोग ने इस तर्क के आधार पर की कि बीसवीं सदी में ज्ञान
की कल मात्रा अचानक बढ़ गई है । स्पष्टत: इस तर्क के पीछे यह मान्यता है कि
ज्ञान एक राशि है | शिक्षा आयोग की रपट यह दिखाती है कि आयोग के सदस्य
पश्चिमी देशों के पाठ्यक्रमों से अत्यंत प्रभावित थे और उनकी पाठ्यक्रम संबधी
सिफारिशों के पीछे यह इच्छा थी कि भारतीय पाठ्यक्रम में जानकारी की राशि
पश्चिमी पाठ्यक्रमों के आधार पर बढ़ाई जाए । यह पूरा सोच राजनीतिक रूप से
उपनिवेशी और शिक्षायी रूप से प्रातनपंथी है क्योंकि उसके अनुसार शिक्षा का
12 राज, यमाज और शिक्षा
केंद्र जानकारी है, बच्चे नहीं । यदि बच्चों को केंद्र में रखा जाए तभी हम देख सकेंगे
कि पाठ्यक्रम के निर्माण के लिए बच्चों की आर्थिक परिस्थिति, उनकी क्षमताएँ,
उनके सामाजिक संदर्भ में शिक्षा के संभव उपयोग की पड़ताल जरूरी है, न कि
जानकारी के पुलिदों का आरोपण | पिछले आठ-दस वर्षों में पाठ्यक्रम संबंधी
परिवर्तन करने के लिए देश के विभिन्न भागों के अध्यापकों और अभिभावकों से
विचार-विमर्श नहीं के बराबर किया गया । थोड़ा-बह॒त शोध नई पाठ्यसामग्री
को शहरों में रहनेवाले बच्चों को पढ़ाकर किया गया और यह मान लिया गया कि
_ सुद्र ग्रामों में पढ़नेवाले बच्चे भी बढ़ी हुई पाठ्यसामग्री को आसानी से स्वीकार कर
लेंगे। आशा के विपरीत नई पाठ्यसामग्री कस्बों और गाँवों के अध्यापकों तथा
बच्चों के लिए बहूत कठिन साबित हुई । खासतौर से विज्ञान और गणित के
पाठ्यक्रमों में जो परिवर्तन हुए, वे इन स्कलों के लिए दुष्कर बन गए । इस प्रकार
शहर के संपन्न और गाँव के गरीब स्कूल के बीच की दूरी, जो पहले ही काफी थी,
और बढ़ गई। इस नई बढ़ोतरी का श्रेय पाठ्यक्रम को कक्षाओं के पैमाने पर
पुनर्नवीकृत करने की चेष्टा को जाता है।
पाठ्यक्रम को कक्षाक्रम से बहुत कड़ाई के साथ बाँध देने के परिणामस्वरूप
बच्चे का विकास एक अनवरत प्रक्रिया नहीं बन पाता, अपितु कृत्रिम खंडों में बँट
जाता है। एक स्थिर पाठ्यक्रम बच्चे की व्यक्तिगत रुचियों और क्षमताओं के
विकास में सहयोग न देकर एक मजबरी बन जाता है, जिसे बच्चा और उसका
अध्यापक दोनों बेबस होकर स्वीकार करते हैं । यदि एक बच्चा किसी विषय में
अपने सहपाठियों से अधिक दिलचस्पी रखता है, तो पाठ्यक्रम की बदौलत उसे पूरे
एक वर्ष या इससे भी अधिक प्रतीक्षा करनी होती है, जब वह उस बिषय में कछ
अधिक विस्तृत जानकारी अध्यापक और नई प॒स्तक से प्राप्त कर सकेगा । श्री
अरबिद आश्रम के शिक्षा केंद्र में, जहाँ पाठ्यक्रम पूर्वनिर्धारित और स्थिर नहीं
रहता, बच्चों को अपनी व्यक्तिगत रूचि और सामर्थ्य के अनुसार किसी विषय की
जानकारी की प्रगति जारी रखने की छूट रहती है ! सामान्य स्कलों में, जहाँ यह छूट
नहीं दी जाती, यह नामुमकिन हो जाता है कि एक विषय के विभिनन क्षेत्रों का बच्चे
के दिमाग में तालमेल बना रह सके । होता प्राय: यह है कि नई कक्षा में आने पर उसे
वही विषय बिलक्ल नया और अपरिचित लगता है, जिसके बारे में काफी -कछ वह
पिछली कक्षा में जान चुका था । विशेष तौर पर ऐसा तब होता है, जब पाठ्यक्रम
पाठ्यपुस्तकों का पर्याय हो, जैसा भारत में है । द
पाठ्यक्रम बच्चे को एक कार्यक्रम के मृताबिक ज्ञान देने के बहाने एक प्रकार के
साँचे में डाल देता है। यह साँचा बच्चे की जिज्ञासा, रुचि और क्षमता को काब् में
करेके धीरे-धीरे समाप्त कर सकता है। मेरा विचार है कि सामान्य स्कलों में
पढ़नेवाले बच्चों में से लगभग तीन-चौथाई के साथ यह दर्घटना माध्यमिक
कक्षा का ढॉँचा / 33
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