श्रीमती गजानंद शास्त्रिणी | SHRIMATI GAJANAN SHASTRINI

SHRIMATI GAJANAN SHASTRINI by पुस्तक समूह - Pustak Samuhश्री सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' - Shri Suryakant Tripathi 'Nirala'

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श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' - Shri Suryakant Tripathi 'Nirala'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8/23/2016 तकवाहा धार्मिक था। जैसा देखा था, पं. रामखेलावन जी से व्याख्या समेत कहा। साथ ही इतना उपदेश भी दिया कि मालिक! पानी की भरी खाल है, कल क्या हो जाए! बिटिया रानी का जल्द से ब्याह कर देना चाहिए। पं. रामखेलावन जी भी धार्मिक थे। धर्म की सूक्ष्मतम इष्टि से देखने लगे तो मालूम पड़ा कि सुपर्णा के गर्भ है, नौ- दस महीने में लड़का होगा। फिर? इस महीने लगन है - ब्याह हो जाना चाहिए। जल्‍दी में बनारस चले। पं. गजानन्द शास्त्री बनारस के बैदय हैं। वैदकी साधारण चलती है, बड़े दांव-पेंच करते हैं तब। पर आशा बहुत बढी-चढी है। सदा बड़े-बड़े आदमियों की तारीफ करते हैं और ऐस स्वर से, जैसे उन्हीं में ऐ एक हों। वैदकी चले इस अभिप्राय से शाम को रामायण पढ़ते-पढ़वाते हैं तुलसी कृत; अर्थ स्वयं कहते हैं। गोस्वामी जी के साहित्य का उनसे बड़ा जानकार - विशेषकर रामायण का, भारतवर्ष में नहीं, यह श्रद्धापूर्वक मानते हैं। सुनने वाले ज्यादातर विद्यार्थी हैं, जो भरसक गुरु के यहां भोजन करके विद्‌्याध्ययन करने काशी आते हैं। कुछ साधारण जन हैं, जिन्हें असमय पर मुफ्त दवा की जरूरत पड़ती है। दो-चार ऐसे भी आदमी, जो काम तो साधारण करते हैं, पर असाधारण आदमियों में गप लड़ाने के आदी हैं। मजे की महफिल लगती है। कुछ महीने हुए, शास्त्री जी की तीसरी पत्नी का असच्चिकित्सा के कारण देहांत हो गया है। बड़े आदमी की तलाश में मिलने वाले अपने मित्रों से शास्त्री जी बिना पत्नी वाली अड़चनों का बयान करते हैं, और उतनी बड़ी गृहस्थी आठाबाठा जाती है - इसके लिए विलाप। सुपात्र सरयूपारीण ब्राह्मण हैं; मामखोर सुकुल। पं. रामखेलावन जी बनारस में एक ऐसे मित्र के यहां आकर ठहरे, जो वैद्य जी के पूर्वोक्त प्रकार के मित्र हैं। रामखेलावन जी लड़की के ब्याह के लिए आए हैं, सुनकर मित्र ने उन्हें ऊपर ही लिया, और शास्त्री जी की तारीफ करते हुए कहा, 'सुपात्र बनारस शहर में न मिलेगा। शास्त्री जी की तीसरी पत्नी अभी गुजरी हैं; फिर भी उम्र अभी अधिक नहीं, जवान हैं।' शास्त्री, वैद्य, सुपात्र और उम्र भी अधिक नहीं - सुनकर पं. रामखेलावन जी ने मन-ही- मन बाबा विश्वनाथ को दंडवत की और बाबा विश्वनाथ ने हिंदू-धर्म के लिए क्या-क्या किया है, इसका उन्हें स्मरण दिलाया - वे भक्तवत्सल आशुतोष हैं, यह यहीं से विदित हो रहा है - मर्यादा की रक्षा के लिए अपनी पुरी में पहले से वर लिए बैठे हैं - आने के साथ मिला दिया। अब यह बंधन न उखड़े, इसकी बाबा विश्वनाथ को याद दिलाई। पं. रामखेलावन जी के मित्र पं. गजानन्द शास्त्री के यहां उन्हें लेकर चले। जमींदार पर एक धाक जमाने की सोची; कहा, 'लेकिन बड़े आदमी हैं, कुछ लेन-देन वाली पहले से कह दीजिए, आखिर उनकी बराबरी के लिए कहना ही पड़ेगा कि जमींदार हैं।' 'जैसा आप कहें।' 'कुल मिलाकर तीन हजार तो दीजिए, नहीं तो अच्छा न लगेगा।' 'इतना तो बहुत है।' 'ठाई हजार? इतने से कम में न होगा। यह दहेज की बात नहीं, बनाव की बात है।' 4/9




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