गांधीजी के आश्रम में | GANDHIJI KE ASHRAM MEIN

GANDHIJI KE ASHRAM MEIN by पुस्तक समूह - Pustak Samuhप्रभाकर माचवे - Prabhakar Machwe

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प्रभाकर माचवे - Prabhakar Maachve

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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#4॥| गाँधीजी के आश्रम में गाँधीजी ने चर्खे को स्वाधीनता आंदोलन का प्रतीक बनाया वाडमय ' के बडे-बड़े पांच-पांच सौ पष्ठों के अस्सी खंड छपकर भी उनका लिखा हआ , उनके पत्र, भाषण आदि, सब कछ अभी परा छप नहीं पाया है। यह काम उनके मरने के बाद गाँधी - जन्म -शताब्दी द्वारा 1969 से शरू हुआ, और अभी तक चल रहा है। दोपहर को भी कछ मिलने वाले आ जाते। किसी न किसी पंस्था की सभा होती। भोजन करने के बाद शाम को 5.30) बजे नियम से गाँधीजी एक घंटा टहलने के लिए निकल पड़ते। धूप हो या जाड़ा, वे बराबर आश्रम से निकलकर, दो मील दरी पर, सेवाग्राम-वर्धा मार्ग पर एक छोटी सी टेकरी है, वहाँ लक जाकर गाँधीजी की दिनचर्या की लौट आते। साथ में आश्रमवासी या अतिथि भी चलते। कई विषयों की चर्चा होती। एक लकड़ी के सहारे वे तेज-तेज कदमों से चलते थे। वर्षा के दिनों में बरामदें में ही टहलते। पर अ नित्य नियम नहीं छोड़ते थे। शाम को साढ़े छह बजे जाड़ों में गर्मियों में सात बजे, आश्रम केबीच के खले अहाते में, प्रार्थना की घंटी बजती थी और घंटा भर तक प्रार्थना होती थी। इस प्रार्थना में सवेरे की प्रार्थना से अधिक लंबा, सब धर्मों से पवित्र ग्रंथों से कई हिस्सों का पाठ होता-हिंद मस्लिम, ईसाई,पारसी , बौद्ध, जैन, सिद्ध आदि सबके ग्रंथों से | कबीर, रैदास, नानक, नामदेव, तकाराम, सर, तलसी , मीरा नरसीमेहता, अमीरखसरो, नजीर अकबराबादी, रवींद्रनाथ ठाकर के भजनों का एक संग्रह गांधीजी ने बनवाया था, उसी में से पाठ होता। कोई विशेष अतिथि आए तो उनका प्रवचन होता। कोई धार्मिक उत्सव या तिथि हो तो उस पर विशेष संगीत या प्रार्थना होती। अंत में गाँधींजी आश्रम की, या देश-विदेश की किसी समस्या पर अपने विचार सबके सामने रखते। इसे प्राथंना-प्रवचन कहते थे। किसी भाई-बहन की विशेष समस्या या प्रश्न का उत्तर भी वे देते। हर बात को वे सार्वजनिक बनाकर चर्चा करने में विश्वास करते थे। उनका अपना निजी कछ नहीं था न मकान, न बैंक अकाउंट। परिवार भी उन्होंने राष्ट्रार्पत कर दिया था। उनकी पत्नी कस्तरबा उनके साथ सख-दख में, जेल में या आश्रम में एक सदस्य की तरह रहती थीं। चार पत्र अपने-अपने व्यवसाय में लग गए मे थ बन गए थे। आश्रम में जो गृहंस्थी वाले थे, यानी पत्नी बाल बच्चों वाले सदस्य वे अलग झोंपड़ियों में आश्रम से बाहर रहते थे। पर आश्रम के सदस्य वे ही होते थे, जिनको परिवार बनकर वहाँ रहना नहीं होता था। अक्सर अविवाहित, या परिवार से अलग, स्वतंत्र लोग ही वहाँ रहते थे। | प्रार्थना के बाद साढ़े सात या आठ बजे सब लोग सोने के लिए




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