हमारे तालाब | HAMARE TALAAB

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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मधु बी० जोशी - MADHU B.JOSHI

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जहाँ भी पानी जमा किया जा सके वहाँ बारिश की एक-एक बूँद जमा कर लेते थे। यहाँ तक कि राजस्थान जैसे सूखे, रेतीले इलाके में भी ताल, तालाब, कुएँ, बेरियाँ बनाकर सालभर बारिश का पानी जमा कर रखा जाता था। करीब सौ बरस पहले दिल्ली में 4 ही 350 छोटे-बड़े तालाब थे । तालाब बनाने के लिए लोग राजा और बादशाह से मदद नहीं माँगते थे। अपनी मदद वे खुद करते थे। तालाब किसानों, ग्वालों, बाबाओं-साधुओं ने बनवाए | सेठों-जमींदारों, विधवाओं, वेश्याओं और बनजारों ने भी बनवाए। जिसने भी तालाब बनवाया, समाज ने उसे महात्मा या सती का मान दिया। तालाब और उसके पानी को पवित्र माना। तालाब का पानी पूरे गाँव के काम आता है, इसलिये तालाब बनाने के काम में भी पूरा गाँव जुटता है। तालाब बनाने का अनुभव रखनेवाले लोग एक ठीक जगह का चुनाव करते हैं। गाँव के बाहर, पशुओं के चरने की जगह, कोई ढाल वाली जगह वे चुनते हैं । वहाँ कोई शौच के लिये न जाता हो। मरे जानवरों की खाल न निकाली जाती हो। जहाँ से पानी आएगा, वहाँ की जमीन मुरुमवाली हो। तालाब की लंबाई, चौड़ाई, गहराई और उसकी हिफाजत का अंदाज अनुभवी लोग लगा लेते हैं। कार्तिक के महीने में, जब फसल कट चुकी होती, सारा गाँव इकट्ठा होता। पूजा करके पाँच पंच खुदाई शुरू करते। दस हाथ मिट्टी के तसले पाल पर डालते | फिर गुड़ का प्रसाद बँटता। तालाब का नक्शा जमीन पर खोद लिया जाता और खुदाई शुरू हो जाती | सैकड़ों हाथ मिट्टी काटते | सैकड़ों हाथ पाल पर मिट्टी डालते | मिट्टी पर पानी डालकर उस पर बैल चलाए जाते, ताकि मिट्टी मजबूती से जम जाए। धीरे-धीरे पाल उठने लगती । पानी (अमन पक» पा» “पक कम. के




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