होज़ वाज पापा | HOJ VAJA PAPA

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असग़र वजाहत - Asagar Wajahat

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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22 श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1980-1990) बढ़ती कीमतों पर बात हो रही है बूढ़ा बहुत नाराज है अब कुछ सुनाई नहीं दे रहा है '' मारिया कुर्सी की पीठ से टिक गयीं। ““बेचारे गरीब लोग मालूम होते हैं।'' 44 गरीब? 11 “हाँ, हमारे यहाँ की गरीबी रेखा के नीचे के लोग।'' कुछ देर बाद 'विजिटर्स ' के जाने का वक्‍त हो गया। बूढ़े की लड़की चली गयी। मारिया भी उठ गयी। गर्म कपड़ों और लोमड़ी के बालों वाली टोपी से अपने को लादकर बोलीं- “ आपकी नर्स तो नहीं आयी?! “अच्छा ही है जो नहीं आयी।'' 4५ क्यों 7 0 ** इसलिए कि औपचारिक बोसे से काम नहीं चलेगा और अनौपचारिक बोसे के बाद नींद नहीं आयेगी।'' उन्होंने कहा-''कोई-न-कोई समस्या तो रहनी ही चाहिए।'' अस्पताल की रातें बड़ी उबाऊ, नीरस, उकताहट-भरी और बेचेनी करने वाली होती हैं। नींद क्यों आये जब जनाब दिन-भर बिस्तर पर पड़े रहे हों। नींद की गोली खा लें तो उसकी आदत-सी पड़ने लगती है। पढ़ने लगें तो कहाँ तक पढ़ें? सोचने लगें तो कहाँ तक सोचें ? लगता है अगर अनंत समय हो तो कोई काम ही नहीं हो सकता। रात में सो पाने, सोचने, पढ़ने आदि-आदि की कोशिश करने के बाद मैं अपने कमरे में आये नये बूढ़े मरीज की तरफ देखने लगा। वह अखबार पढ़ते-पढ़ते सो गया था। जागते हुए भी उसका चेहरा काफी भोला और मासूम लगता है लेकिन सोते में तो बिल्कुल बच्चा लग रहा था। उसके बड़े-बड़े कान हाथी के कान जैसे लग रहे थे। धँसे हुए गालों के ऊपर हड्डियाँ उभर आई थीं। शायद उसने अपने नकली दाँतों का चौखटा निकाल दिया था। उसकी ओर देखकर मेरे मन में तरह-तरह के विचार आने लगे। सबसे प्रबल था कैंसर का बढ़ा हुआ मर्ज, चौरासी साल की उम्र और जिन्दगी का एक ऐसा मोड़ जो अँधेरी गली में जाकर गायब हो जाता है। लगता था बचेगा नहीं जो कुछ मुझे बताया गया था उससे यही लगता था कि ऑपरेशन के बाद बूढ़ा सीधा 'इन्टेन्सिव केयर यूनिट ' में ही जाएगा। और फिर पता नहीं कहाँ? मुझे लगने लगा कि उसकी मृत्यु बिल्कुल तय होज वाज पापा 23 है। उसी तरह जैसे सूरज निकलना तय है। लगा कहीं ऑपरेशन टेबुल पर ही न चल बसे बेचारा पता नहीं, क्यों अचानक वह मुझे हंगेरी के अतीत-सा लगा। रात ही थी पता नहीं दिन हो गया था। अचानक कमरे की सभी बत्तियाँ जल गयीं और हॉयनिका के अंदर आने की आवाज से मैं उठ गया। उसने मुस्कराहट ' थरमामीटर ' हाथ में दिया। इसका मतलब है सुबह का छ: बजा है। उसकी मुस्कराहट बड़ी कातिल थी। शायद कल वाली बात उसे याद होगी। मैंने दिल-ही-दिल में कहा, इस तरह मुस्कराने से क्या होगा, वायदा निभाओ तो जानें। उसने बूढ़े आदमी को 'पापा' कहकर जगाया और उन्हें भी 'थरमामीटर' कपड़ा दिया। संसार के सभी अस्पतालों की तरह इस अस्पताल में भी आप समय का अंदाजा नर्सो के विजिट, डॉक्टरों के आने, नाश्ता दिए जाने, गैलरी की बत्तियाँ बंद किए जाने वगैरा से लगा सकते हैं। सुबह के काम धीरे-धीरे होने लगे। 'पापा' उठे। उन्होंने अपनी छड़ी उठाई। छड़ी बहुत पुरानी लगती है। उतनी तो नहीं जितने पापा हैं लेकिन फिर भी पुरानी है। छड़ी के हत्थे पर प्लास्टिक की डोरी का एक छल्ला-सा बँधा हुआ था। उन्होंने छल्ले में हाथ डालकर छड़ी पकड़ ली और बाहर निकल गये। शायद बाथरूम गये होंगे। छड़ी के हत्थे से प्लास्टिक की डोरी का छलला बाँधने वाला आइडिया मुझे अच्छा लगा। इसका मतलब यह है कि पापा के हाथ से छड़ी कभी गिरी होगी। बस में कभी चढ़ते हुए या ट्राम से उतरते या मैट्रो से निकलते हुए। छड़ी गिरी होगी तो पापा भी गिरे होंगे। पापा गिरे होगें तो उनके पास जो सामान रहा होगा वह भी गिरा होगा। लोगों ने फौरन उनकी मदद की होगी। समान समेटकर उन्हें दिया होगा। उनकी छड़ी उन्हें पकड़ाई होगी। इस तरह से बूढ़ों को मैंने अक्सर बसों, ट्रामों में उतरते-चढ़ते समय गिरते देखा है। पूरा दृश्य आँखों के सामने कोंध गया। इसी तरह की किसी घटना के बाद पापा ने प्लास्टिक की डोरी का छल्‍्ला छड़ी के मुद्ठे से बाँध लिया होगा। इस शहर में मैंने अक्सर इतने बूढ़े लोगों को आते-जाते देखा है जो ठीक से चल भी नहीं पाते। फिर भी वे थेले लिए हुये बाजारों, बसों में नजर आ जाते हैं। शुरू-शुरू में में यह समझ नहीं पाता था कि यदि ये लोग इतने बूढ़े हैं कि चल भी नहीं सकते तो घरों से बाहर ही क्‍यों निकलते हैं। बाद में मेरी इस जिज्ञासा का समाधान हो गया था। मुझे बताया गया था कि प्राय: बूढ़े अकेले रहते हैं। पेट की आग इन्हें कम-से-कम हफ्ते में एक बार घर से निकलने पर मजबूर कर देती है।




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