अपना अपना भाग्य | APNA APNA BHAGYA

APNA APNA BHAGYA by जैनेन्द्र -JAINENDRAपुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(५ गो रे / लय, ; 1 गे /- ४ को६ 2 टू | 2. | । ले श् रण कप २. | सह कम. हे रे कि पर है. ब चर हे ० बला 1 ँ श्् बहुत कुछ निरुद्देश्य घूम चुकने पर हम सड़क के किनारे की एक बेंच पर बैठ गये। नेनीताल की सन्ध्या धीरे-धीरे उतर रही थी। रुई के रेशे-से, भाप-से बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक घूम रहे थे। हल्के प्रकाश और अंधियारी से रंग कर कभी वे नीले दीखते, कभी सफेद और फिर देर में अरुण पड़ जाते । वे जैसे हमारे साथ खेलना चाह रहे थे। पीछे हमारे पोलोवाला मैदान फैला था। सामने अगरेजों का एक प्रमोद-गह था, जहाँ सुहावना, रसीला बाजा बज रहा था और पार्श्व में था वही सुरम्य अनुपम नैनीताल । ताल में किश्तियाँ अपने सफेद पाल उड़ाती हुई एक-दो अंग्रेज यात्रियों को लेकर, इधर-से-उधर और उधर-से-इधर खेल रही थीं। कहीं कुछ अंग्रेज एक-एक देवी सामने प्रतिस्थापित कर, अपनी सुई-सी शक्ल की डोंगियों को, मानो शर्त बाँध कर सरपट दौड़ा रहे थे। कहीं किनारे पर कुछ साहब अपनी बंसी डाले, सधेर्य, एकाग्र, एकस्थ, एकनिष्ठ मछली-चिन्तन कर रहे थे। पीछे पोलो-लॉन में बच्चे किलकारियाँ मारते हुए हॉकी खेल रहे थे। शोर, मार-पीट, गाली-गलौज भी जैसे खेल का ही अंश था। इस तमाम खेल को उतने क्षणों का उद्देश्य बना, वे बालक अपना सारा मन, सारी देह, समग्र बल और समूची विद्या लगाकर मानो खतम कर देना चाहते थे। उन्हें आगे की चिन्ता न थी, बीते का ख्याल न था। वे शुद्ध तत्काल के प्राणी अपना-अपना भाग्य




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