रामचर्चा | RAMCHARCHA
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
101
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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प्रेमचंद - Premchand
प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। उनक
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)8/110/2016
झुटपुटा ही चला था।मानसिंह तेजवा और लालवा से विदा होकर बाहर आये। चाहते थे, कि राजपूतों को चलने की
आज़ा दें, अचानक दक्षिण की ओर देखा, तो काले बादलों के समान हवा में उड़ते हुए मुगल सिपाही आ रहे थे।
देखते ही मानसिंह खबर देने भीतर गया। इधर मुगलों ने गढ़ी घेर ली। राजपूत लड़ाई के लिए तो सजे खड़े ही थे,
भिड़ गये और घमासान मारकाट होने लगी। मानसिंह ने कहा - ' बेटा मानसिंह! जैसे बने, वैसे लालवा को यहां से
निकाल ले जाओ, हम केवल कुल में कलंक ही लगने को डरते हैं, मरने को नहीं। मानसिंह झपटकर लालवा के
पास पहुंचा और समझा-बुझाकर उसे सुरंग वाली कोठरी में ले गया। लालवा बोली भाई! वृद्ध नाथू को किसी प्रकार
बचाना चाहिए। मानसिंह ने लालवा से कहा - * अच्छा बहन! तुम यहीं खड़ी रहो, मैं नाथू के लिए जाता हूं। यदि
मेरे आने में देर हो, तो सीधी चली जाना, थोड़ी ही दूर पर तुमको महेन्द्र नाथ बाबा की मढी मिलेगी। तुम वहां बाबा
के पास ठहरना, मैं आ जाऊंगा। मानसिंह सुरंग का मुंह बन्द कर बाहर आया। देखा तो मुगल्र सिपाही गढी के चारों
ओर भर गये। चन्द्रसिंह, जो लालवा की सुन्दरता पर मोहित था।, पागलों के समान कोठरी-कोठरी में लालवा की
ही खोज कर रहा था।मानसिंह एक झरोखे से छिपकर देख रहा था।, अचानक तीन सिपाही इधर ही पहुंचे गये।
मानसिंह ने तुरन्त ही तीनों को यमपुर भेज दिया और वहां से हटकर दूसरी ओर चला। यहां भी एक मुगल सिपाही
दीख पड़ा। मानसिंह उसे मारना ही चाहता था। कि किसी ने पीछे से कहा - * हां, हां, यह खुदाबख्श है। हाथ रोक
लिया। मुड़कर देखा, तो नाथू खड़ा था।तुरन्त ही तीनों मिल्रकर सुरंग में उतरे। लालवा अभी यहीं खड़ी थी। पुकारा
भाई मानसिंह! क्या नाथू को ले आये? नाथू ने कहा - ' हां बेटी, मैं कुशल से हूं और खुदाबख्श को साथ ले आया हूं।
लालवा ने चलते- चलते पूछा नाथू! हमारे माता-पिता की क्या दशा होगी? नाथू ने कहा - “ बेटी! मेरे ही सामने
पकड़े गये थे। इसके बाद क्या हुआ मैं नहीं जानता, मुझे तो महाराज ने भाग जाने का संकेत किया। मैं उनका
अभिप्राय समझकर भागा। बेटी! अपने लिये नहीं; किन्तु लोहे वाली सन््दूक के लिए।
खुदाबख्श ने कहा - ' बेटी लालवा अपने माता-पिता की चिन्ता मत करो। मैं मुसलमान हूं; इसलिए अपने पकड़े
जाने का भय तो था। ही नहीं, वहीं खड़ा रहा और सबकी सुनता रहा। थोड़ी ही देर में सारा भेद खुल गया। देशद्रोही
चन्द्रसिंह ने मंगनी के लिए महाराज को एक पत्र लिखा था।कदाचित् यह बात तुझे न मालूम हो, महाराज उस
दुष्ट स्वभाव से परिचित थे, इसलिये उसकी विनय पर जरा भी धयान न दिया। उसी बात पर चन्द्रसिंह ऐएँठ गया
और महाराज को नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगा। दैवयोग से किसी प्रकार उसे नाथू का आना और वीर
दुर्गादास की सहायता के लिए यहां से राजपूतों को भेजा जाना मालूम हो गया। तुरन्त मुगल सरदार इनायतखां के
पास दौड़ा गया और महाराज को राजद्रोही बताकर माड़ों पर चढ़ाई कर दी। यह सब था। तेरे ही लिए; परन्तु ईश्वर
की कृपा थी, कि तू उस देशद्रोही दुष्ट के हाथ न लगी,नहीं तो आज बड़ी खराबी होती। जब लाख ढूंढने पर भी
चन्द्रसिंह ने तेरा पता न पाया, तब तेरे माता-पिता को पकड़कर सोजितगढ़ में रखने का विचार किया, ईश्वर ने
चाहा तो दो ही तीन दिन में वे छूट जायेंगे।
सुरंग समाप्त हो गई, तो मानसिंह ने आगे बढ़कर सुरंग का मुंह खोला और एक-एक करके सबको बाहर निकाला।
मढ़ी में मनुष्यों की आहट पाते ही बाबा महेन्द्रनाथ जी आ पहुंचे | सबों ने उठकर प्रणाम किया। बाबाजी ने
आशीर्वाद दिया। मानसिंह ने पूछने के पहले ही मुगलों का धावा और भागने का कारण कह सुनाया। बाबाजी ने
लालवा की ओर देखा और उसकी पीठ पर हाथ फेरकर बोले बेटी! अब किसी बात की चिन्ता न करो। यहां आनन्द
से रहो, तुम्हारे लिए अभी एक दासी बुलाये देता हूं। बेटी, यहां किसी की सामर्थ््य नहीं, कि तुम्हें कष्ट पहुंचा सके।
बाबाजी ने सबको ढाढ़स दिया और सोने के लिए स्थान बताकर दूसरी मढ़ी में चले गये। डर और चिन्ता में नींद
कहां? जैसे-तैसे रात कटी, सबेरा हुआ, खुदाबख्श ने जाने की आज्ञा मांगी। बाबा महेन्द्रनाथ ने कहा - ' बेटा! ऐसे
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