मोरा | MORA

MORA by पुस्तक समूह - Pustak Samuhमुल्कराज आनंद - MULKRAJ ANAND

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मुल्कराज आनंद - Mulkraj Aanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मैंने उसको कहते सुना, “अगर इस हथिनी को और उसके बच्चे को जिंदा पकड़ ले जा सके तो मुँहमागे दाम मिलेंगे | हम क़िसी तरह जान बचाकर भागे, आगे-आगे मैं और पीः इस बार तो हमने जान बचा ली थी । भागते-भागते हम एक झील के किनारे पहुँचे जहाँ खूब ऊँची-ऊँची घास उगी थी। मुझकों खूब भूख लगी थी। छक कर घास खायी। लेकिन मेरी माँ ने तीन दिन तक खाना नहीं छुआ | वह अपनी सूँड से मझको कसकर पकड़े रही और आँसू बहाती रही । मेरी आँखों से भी आँसू गिरने लगे। | पेट में न जाने केसी बेचैनी-सीं होने लगी । ओर तब माँ ने मुझको बताना शुरू किया कि शिकारी नाम का दुष्ट जीव कितना बेरहम होता है । माँ ने मुझको गाँवों और शहरों में आदमियों के साथ रहनेवाले हाथियों के बारे में बताया । उसने बताया कि ये हाथी आदमियों के गुलाम बन जाते हैं और उनकी सेव करते हैं । उसने मुझको बताया कि अपनी देखभाल केसे करनी चाहिए । सुनकर -भी न सुनना, देखकर भी न देखना । सिर्फ अपनी लंबी नाक से मीलों दर तक सूँघना और सोचना । माँ ने बताया कि हाथी सारी दुनिया में अप॑नी बुद्रि के लिए मशहूर हैं। उसने संमझाया कि मुझे होशियार बनना चाहिए, अपने से जो कमजोर हों उनकी मदद करनी चाहिए | दिल का मजबूत होना चाहिए, और अपना टाना चाहिए । | माँ ।




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