हम अन्तरिक्ष के बारे में कैसे जानते हैं ? | HAM ANTRIKSHA KE BARE MEIN KAISE JANTE HAIN ?

HAM ANTRIKSHA KE BARE MEIN KAISE JANTE HAIN ? by आइज़क एसिमोव -ISAAC ASIMOVपुस्तक समूह - Pustak Samuh

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आइज़क एसिमोव -Isaac Asimov

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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116: /101706/511/851170५४-1/351710५-1 २ 2909९ 4 7 कर बंद कर दिया जाए, तो गैसें फ़ैल कर जोर से हानिकारक धमाका करेंगी. किन्तु एक सिरा तो हलके से ही बंद है. यहाँ से गैसें हिसहिसाती हुई ध्वनी के साथ बहार निकलेंगी व रॉकेट विपरीत दिशा में उड़ने लगेगा. जैसे जैसे गैसों का निकास बहार आता जायेगा, रॉकेट अधिक गति से आगे बढेगा, व सारा बारूद समाप्त होने पर अपनी चरम गति पर पहुँच जायेगा. तत्पश्चात, वो धीरे होकर अंततः धरती पर गिर जायेगा. बारूद का आविष्कार चीनियों द्वारा किया गया था. १२०० के दशक में चीनी मनोरंजन हेतु रॉकेट व अन्य आतिशबाजियां बनाकर प्रकाश व ध्वनि का आनंद उठाते थे. रॉकेट का प्रयग वो युद्ध में शत्रु को डराने के लिए भी करते थे. १२०० के दशक में बारूद व रॉकेटों की जानकारी पश्चिम की ओर यूरोप में फ़ैल गयी. यूरोपीय नागरिक बारूद का प्रयोग मुख्यतः तोपों में ही करते थे, किन्तु रॉकेट काल मनोरंजन के लिए ही उपयोग में लाये जाते थे. १७८० के दशक में अंग्रेज़ भारतीय सेनानियों के विरूद्ध लड़ रहे थे. भारतीय रॉकेटों का प्रयोग अंग्रेजी सेना पर पत्थर फेंकने के लिए करते थे. तोपों का नियंत्रण करने वाले एक अंग्रेज़ अधिकारी विलियम कौन्ग्रीव ने ये देखा. उसने सोचा कि यदि ठीक तरह से निर्माण किया जाए, तो तोप गोलों की तुलना में रॉकेट न केवल अधिक दूरी तक दागे जा सकते हैं, अपितु शरु को अधिक हानि भी पहुंचा सकते हैं. उन्होंने बेहतर रॉकेटों का निर्माण किया, व १८०० के दशक में थल व जल पर अंग्रेज़ सेना ने शत्रु के विरुद्ध इनका प्रयोग किया. इनमें से एक शत्रु अल्पायु राज्य था- संयुक्त राष्ट्र अमरीका. १८१२ से १८१४ के बीच संयुक्त राष्ट्र अमरीका व ग्रेट ब्रिटेन में युद्ध हुआ. १८१४ में अंग्रेजों ने बाल्टीमोर के बंदरगाह पर स्थित मेक हेनरी किले की घेराबंदी कर ली. अन्य शास्त्रों सहित उन्होंने किले पर रॉकेट भी दागे. सारी रात बमबारी जारी रही, और ब्रितानी जहाज़ पर सवार एक अमरीकी, फ्रांसिस स्कॉट की (जोकि जहाज़ पर बंदी बनाये गए एक अन्य अमरीकी को रिहा कराने आया था) उत्सुकतावश ये देखता रहा. भोर होते ही की न किले पर अमरीकी झंडा फेहराता हुआ देखा, और वो ये समझ गया कि ब्रितानी बमबारी असफल रही है. प्रसन्न होकर उसने एक कविता लिखी, जिसे हम 'द स्टार-स्पेंगल्ड बैन्नर' (तारों वाला झंडा) के नाम से जानते हैं. अंततः ये अमरीका का राष्ट्र-गान बना. कविता के प्रथम पद में एक जगह, वे रात्री की बमबारी का वर्णन कुछ इस प्रकार करते हैं: एंड द रॉकेट्स रेड ग्लेर, द बोम्ब्स बरस्टिंग इन द एयर- , किन्तु रॉकेटों का प्रयोग बहुत अधिक वर्षों तक नहीं किया गया, क्यूंकि तोपों को लगातार बेहतर बनाया जाता रहा, व जल्दी ही वे बढे व भारी गोले रॉकेटों कि तुलना में अधिक दूर तक दागने के योग्य बन गयीं. परन्तु इसका अर्थ ये नहीं है कि रॉकेटों का फिर कभी प्रयोग नहीं किया गया. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, १९४० के दशक में, एक बार फिर रॉकेटों को आज़माया गया. इसका एक उदहारण ये है, कि सैनिक अपने साथ 'बजूका' नामक हलकी नली नुमा बन्दूक लेकर चलते थे, जिससे वो तोपों पर रॉकेट दाग सके. द्वितीय विश्व युद्ध के समय ऐसे हवाईजहाजों का भी आविष्कार किया गया जो रॉकेट के सिद्धांतों पर चलते थे. गैसों का निकास इन वायुयानों के पिछले भाग से भव्य फुहार के रूप में निकलता था, जिसके कारण यान बहुत तेज़ गति से आगे बढ़ता था. १९५२ में इन जेट यानों का प्रयोग शांतिप्रिय कार्यों में होने लगा. आजकल लोग इन्हीं जेट विमानों में विश्व भर की सैर करते हैं. हवा की तुलना में जेट विमान शून्य में बेहतर रूप से कार्य करते हैं. तो क्या इस प्रकार के क्रिया-प्रतिक्रिया को धरती से चन्द्रमा तक यान भेजने के लिए प्रयोग में नहीं लाया जा सकता? ये तर्क सर्वप्रथम १६५० में सुझाया गया था. ये न्यूटन के संसार को क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धांत समझाने की प्रथम चेष्टा से लगभग ४० वर्ष पहले की बात है. ये उपाय सुझाने वाले व्यक्ति थे फ्रांसिसी विज्ञान कथाकार सिरानो दे बेर्गराक. उन्होंने 'वोएज टू द मून' (चनरमा की यात्रा) नामक उपन्यास लिखा. इसमें उन्होंने चन्द्रमा तक पहुँचने के ७ तरीकों के बारे में बताया. इनमें से ६ संभव नहीं थे, किन्तु सातवाँ रॉकेटों द्वारा संभव था. (सिरानो की नाक बहुत लम्बी थी, जिसके कारण अकसर उनका अपना उपहास करने वालों से द्वन्द युद्ध हो जाया जाया करता था. उनके बारे में एक प्रसिद्द नाटक भी बना है, जिसके कारण लोग उन्हें लम्बी नाक व द्वन्द युद्ध के लिए याद करते हैं और ये भूल जाते हैं कि वो एक विज्ञान उपन्यासकार भी थे.) इसको २५० वर्ष बीत गए इससे पहले की कोई वैज्ञानिक रॉकेट द्वारा अंतरिक्ष की यात्रा के विषय में विचार करता. जिसने ये किया वो थे रूस के कोंसटेनटिन ई. सिओल्कौस्की. उनका जन्म १७ सितम्बर १८५७ में हुआ था. केवल ९ वर्ष कि आयु में एक कर्ण संक्रामक रोग ने उन्हें लगभग पूर्ण रूप से बहरा बना दिया, और इस कारण उस समय के रूस में उनकी शिक्षा प्राप्ति के द्वार बंद हो गए. तथापि, पुस्तकों से उन्होंने आवश्यकतानुसार ज्ञान स्वयं प्राप्त किया, और अनेक मौलिक सिद्धांतों का पता लगाया. १८९५ में उहोने अंतरिक्षयानों के बारे में लिखना आरम्भ किया. सिरानो कि भांति, सिओल्कौस्की ने भी सोचा की अंतरिक्षयान रॉकेट द्वारा चलाये जा सकते हैं. यद्यपि सिओल्कौस्की ने रॉकेटों में बारूद के विषय में नहीं सोचा था. वे तो पराफीन के तेल जैसे तरल ईर्धनों के बारे में सोच रहे थे. इस प्रकार के इंर्धन बारूद कि तुलना में अधिक ऊर्जा प्रदान करते हैं, व तरल होने के कारण आसानी से नियंत्रित किये जा सकते हैं. उन्हें कम या अधिक मात्र में जला कर धीमा या तेज़ जलाया जा सकता है. आज हम अपने अधिकतर विमानों में तरल इंर्धन का उपयोग करते हैं. उदहारणतः गाड़ियों व हवाईजहाजों को चलाने हेतु पेट्रोल का प्रयोग होता है. यद्यपि, चलने योग्य ऊर्जा प्रदान करने हेतु पेट्रोल का हवा में पायी जाने वाली ऑक्सीजन गैस से मिलना अनिवार्य है- जोकि सरल बात है क्यूंकि ये विमान हवा में ही चलते हैं. किन्तु, अंतरिक्ष के शून्य में चलो रहे किसी यान कि बात और है. उसके आस-पास हवा नहीं होती, अतः चलने के लिए रॉकेट को अपना ऑक्सीजन स्वयं ढोना पड़ता है, जिसे की ठंडा करके तरल बना दिया जाता है ताकि थोड़ी जगह में अधिक ऑक्सीजन रखा जा सके. सिओल्कौस्की ये बात समझ गए, व १९०३ में उन्होंने एक उडययन पत्रिका के लिए लेखों की एक श्रंखला प्रारंभ की जिसमें उन्होंने रॉकेट के सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन किया. उन्होंने न केवल तरल इंर्धन व तरल ऑक्सीजन का वर्णन किया, अपितु अंतरिक्षपोशाक व अंतरिक्ष में उपनिवेशन आदि विषयों पर भी अपने विचार प्रस्तुत किये. जीवन के अंतिम चरण में, उन्होंने 'आउटसाइड द अर्थ' (धरती से परे) नामक एक विज्ञान उपन्यास की रचना भी की. यद्यपि सिओल्कौस्की ने रॉकेट चलाने की तकरीबनसभी तकनीकों का पता लगा लिया था, उन्होंने कभी उसके निर्माण की चेष्टा नहीं करी. १९ सितम्बर १९३५ को उनका निधन हो गया. हालांकि सोवियत संघ में उनका बड़ा मान था, उस देश के बाहर शायद ही किसी ने उनके बारे में सुना हो. ४. तरल-इंर्धन चालित रॉकेट 221, कप ५ मम ब हज 5 वैज्ञानिक >>. हो हचिंग्स गौडार्ड & उनका जन्म अक्टूबर को & प मेसाचुसेट्स कर वोर्चेस्टर आओ के तरल इंर्धन से चलने वाले रॉकेट बनाने वाले प्रथम व्यक्ति थे अमरीकी वैज्ञानिक रॉबर्ट हचिंग्स गौडार्ड, उनका जन्म ५ अक्टूबर १८८८ को इस स्थित वोर्चस्टर में हुआ था. .ु उपन्यासों 5 उन्होंने कप . ह रे ह्त हे छः बाल्यकाल से ही उनकी रूचि विज्ञान उपन्यासों में थी और उन्होंने एच. जी. वेल्स द्वारा रचित 'द वार ऑफ द वल्ड्र्स' (५15॥9४0०॥ का युद्ध) पढ़ा. १८९८ में प्रकाशित हुए इस उपन्यास में बुद्धिजीवी मंगल वासियों द्वारा पृथ्वी पर आक्रमण का वर्णन था. इसे पढने से गौडार्ड को कुछ काल्पनिक सिद्धांतों की प्रेरणा मिली. कॉलेज के ही दिनों में उन्होंने 'ट्रैवेलिंग इन १९५०' (१९५० में यात्रा) नामक एक लेख लिखा. इसमें उन्होंने ऐसी रेलगाड़ियों का वर्णन किया जिहें हवा-रहित सुरंग में चुम्बक द्वारा खींच-कर चलाया जा सकता था. उन्होंने कल्पना ई कि ये रेलगाड़ियाँ बोस्टन से न्यूयॉर्क तक की यात्रा १० मिनट में पूरी कर लेंगी. (दुर्भाग्यवश १९५० के आगमन पर भी ऐसी कोई रेलगाड़ी नहीं थी, व ये यात्रा अब भी ४ घंटे की अवधि में ही पूर्ण होती थी).




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